________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(७०) तिविहेण पडिक्कंतो-मन, वचन, काया रूप त्रिविध
__ योग पूर्वक अतिचार दोषों से निवृत्त हो कर वंदामि जिणे चउव्वीसं । ऋषभदेवादि चौवीस जिनेश्वर
भगवन्तों को भक्तिभाव से वन्दन करता
हूँ ॥४३॥ जावंति चेइआई–जितने चैत्य ( मन्दिर ) और बिम्ब उड्ढे अ अहे अतिरिअलोए अ-ऊर्वलोक, अधो
लोक और तिरछा लोक में मौजूद हैं। सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ।--वहाँ रहे
हुए उन सब चैत्यों और जिनबिम्बों को
मैं यहाँ रहा हुआ वन्दन करता हूँ॥४४॥ जावंत के वि साहू--जितने कई साधु । भरहेरवयमहाविदेहे अ-भरत, ऐरवत और महावि
देह रूप पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्र में विद्यमान हैं सव्वेसिं तेसिं पणओ--उन सब को नमस्कार हो तिविहेण तिदंडविरयाणं ।—जो त्रिविध अशुभ योग रूप
तीन दंडो से रहित हैं ॥ ४५ ॥ चिरसंचियपावपणासणीइ--बहुत काल से इकट्ठे किये
हुए पापों को नाश करनेवाली और भवसयसहस्समहणीए-लाखों भवों के भ्रमण को
मिटानेवाली
For Private And Personal Use Only