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(११०) सिद्धाचलजिनस्तवन । श्रीसिद्धाचल दिये, पाप निकंदिये रे । भेटिये प्रथम जिणंद, समकित संपजे रे ॥ टेर॥ सिद्धक्षेत्र छे शाश्वतो, भवि मन भास्वतो रे, भेटयां भव भय जाय ॥स०॥१॥ सिद्ध अनन्ता शिव लह्या, जिनवर कह्या रे, भवजल तारण नाव ॥ स० ॥ २ ॥ विमलवसी वखते वणी, मोहनमणी रे । चउसुख प्रतिमा चार ॥ स० ॥३॥ रायणरूंख सुराजतो, गज अति गाजतो रे । मरुदेवी मात विख्यात ।। स०॥४॥ सुर सेवा जिहाँ सारता, विधन निवारता रे, आज प्रत्यक्ष प्रभाव ॥ स० ॥ ५॥ सूरजकुंड सोहामणो, दीपे घणु रे, वाघनपोल विशाल ॥ स० ॥ जिनेन्द्रटोंक मोतीवसी, मुरघर जिसी रे, आइठाण अनेक ॥ स० ॥७॥ विमलगिरि गुण गावता, लहे सुख शाश्वता रे, फरसे चरण गिरीन्द ॥ स० ॥८॥ दरिसण भाव सुबोधता, रुचिप्रमोदता रे, समप्पे सूरिराजेन्द्र ॥ स० ॥९॥
६५. बीजतिथि-चैत्यवन्दन । परमेष्ठी श्री अजितजिन, बीजा प्रणमो बीज । दुविध धर्म भवि आदरो, समकित गुण रीझ ॥१॥ चवण सुमति अरनाथजी, श्रावण फागुण शुद्ध । माघसित जनी केवली, चउथम बारम लुद्ध ॥२॥
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