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(५१) जं बद्धमिदिएहिं-इन्द्रियों के द्वारा मैंने जो कर्म बाँधा, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहि-अप्रशस्त चार क्रोधादि
कषायों के द्वारा कर्म बाँधा, रागेण व दोसेण व-और राग के और द्वेष के द्वारा
जो कर्म बाँधा, तं निंदे तं च गरिहामि-उनकी मैं निन्दा और गर्दा
___ करता हूँ॥४॥ आगमणे निग्गमणे-आने में, जाने में ठाणे चंकमणे अणाभोगे--ठहरने में, घूमने में, अन
जानपन (उपयोग नहीं रहने ) से अभियोगे अनिओगे-किसीके बलात्कार ( दबाव )
से और नौकरी आदि की पराधीनता से
सम्यग्दर्शन में पडिक्कमे देसि सव्वं ।--दिवस सम्बन्धी जो अतिचार
लगा हो उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥५॥ संका कख विगिच्छा-जिनवचन में सन्देह १, अन्य
मत की चाहना और धर्म का फल मिलने में संशय होना २, अथवा मलमलिन गात्र,
वस्त्रवाले साधुओं पर अभाव होना ३, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु-कुलिंगी मिथ्यात्वियों
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