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( ७८)
तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं देवलोक सम्बन्धी सुख को तृण के बराबर भी नहीं गिनते,
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प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः । - वे जिनेन्द्र भगवान् प्रातःकाल में कल्याण (मोक्ष) के लिये हो ॥ २ ॥ कलङ्कनिर्मुक्तममुक्त पूर्णतं - कलंक (दोष) रहित, पूर्णता को नहीं छोड़ने वाले,
कुतर्क राहुग्रसनं सदोदयम् कुतर्क रूपी राहु को दूर करनेवाले, निरन्तर उदयवाले,
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अपूर्वचन्द्र जिनचन्द्र भाषितं -- जिनेन्द्र प्ररूपित अलौकिक आगम रूप चन्द्र की
दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् - प्रातःसमय में मैं स्तुति करता हूँ, वह आगम पंडितों के द्वारा नमस्कार किया हुआ है || ३ || अर्थात्-लोक में रहे हुए चन्द्र में कलंक हैं, उसका उदय घट वध युक्त है, वह राहु से ग्रसित है, और हानि-वृद्धि सहित हैं । परन्तु जिनागम रूपी चन्द्र कलंक से रहित हैं, सदा स्थायी हैं, हा वृद्धि से रहित है और सदा समान उदयशील है । इसीसे वह अलौकिक और विद्वानों से प्रशंसित है ।
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