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(१६०) घोतक है। धर्म विनयकमूलक है, अतएव गुरु के विनयार्थ सामायिक, प्रत्याख्यान आदि खडे होकर ही उच्चरना चाहिये।
प्रश्न-प्रतिक्रमण में श्राद्धव्रतों के अतिचारों की आलोचना है, इसलिये व्रतधारियों के सिवा प्रतिक्रमण करना क्या व्यर्थ है ?
उत्तर-एसा मन्तव्य क्रियाशिथिल और धर्माभास लोगों का है श्राद्धप्रतिक्रमण (वंदित्त) सूत्र में साफ लिखा गया है किपडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं । असदहणे अ तहा, विवरीयपरूवणाए अ॥४८॥
अर्थात्-१ आगम-निषिद्ध हिंसादि कार्य करने, २ करने लायक कार्य को न करने, ३ निगोदादि सक्ष्म पदार्थों के अस्तित्व में श्रद्धा न रखने और ४ जिनवचन विरुद्ध मरूपण करने में जो दोष ( अतिचार) लगे हों उनकी शुद्धि के पश्चात्ताप के लिये प्रतिक्रमण किया जाता है। इससे व्रतधारी हो या अव्रतधारी, दोनों को प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । प्रतिक्रमण से मिथ्याभाष का अभाव, सम्यक्त्व की उज्ज्वलता, कषायों की मन्दता, विरतित्व, क्षमादिगुण का प्रादुर्भाव और सपाप मायिक व्यापारों में उदासीनता आदि लाभ की प्राप्ति होती है-जिससे कर्म की लाघवता हो कर संसार-भ्रमण का परिताप कम होता है। अतः इसके मूल
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