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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६१ ) हेतुओं को लक्ष्य में रख कर अर्थज्ञान और शुद्धोच्चारण पूर्वक प्रतिक्रमणक्रिया की जाय तो विशेष लाभकारक है । प्रश्न – चैत्यवन्दनक्रिया प्रतिक्रमण में की जाना ठीक है या जिनमन्दिर में ? उत्तर - - प्राचीनकाल में श्रावक-श्राविका जिनमन्दिर में चैत्यवन्दनक्रिया करके पौषधशाला आदि में प्रतिक्रमण करते थे और रात्रिक-प्रतिक्रमण करके जिनालय में जाकर चैत्यवन्दनक्रिया करते थे । परन्तु प्रमाद के कारण लोगोंने जिनालय में चैत्यवन्दनक्रिया छोड़ना शुरू की, तब सुबि - हिताचार्योंने उक्त क्रिया को प्रतिक्रमणविधि में सम्मिलित कर दी जब से यह क्रिया प्रतिक्रमेण में शुरू हुई, जो सुविहिताचार्य समाचरित होने से अनुचित नहीं है । प्रश्न - चार स्तुति प्राचीन है या तीन, और चौथी स्तुति के कहने में क्या दोष है ? | उत्तर -- हरिभद्राचार्यरचित ' श्रीपञ्चाशकप्रकरण ' के टीकाकार श्री अभयदेवाचार्य ने 'चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीना' इस वाक्य से चौथी स्तुति को निश्चय से नवीन कही है, तीन स्तुति को प्राचीन कहना उचित है । यदि 'किल' शब्द का ' संभावना' अर्थ माना जाय तो भी अभयदेवाचार्य के कथन से चौथी स्तुति नवीन ही संभवित होती है । अगर वह प्राचीन होती तो उसकी संभावना क्यों करना पडती ? | १२ For Private And Personal Use Only
SR No.020303
Book TitleDevasia Raia Padikkamana Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantvijay
PublisherAkhil Bharatiya Rajendra Jain Navyuvak Parishad
Publication Year1964
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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