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( ६७ )
जह विहु पावं समायरे किंचि - अपने निर्वाह ( आजीविका ) के निमित्त जो भी कुछ पापव्यापार अवश्य आचरण करता है अप्पो सि होइ बंधो, तो भी उदासीन परिणाम से उसको कर्मों का बन्धन अल्प होता है
जेण न निद्धंधसं कुणइ । —क्योंकि वह निर्दयभाव से अति पाप व्यापार को नहीं करता ॥ ३६ ॥
तं पि हु सपडिक्कमणं ---- अल्प कर्मबन्धक कार्य को भी श्रावक प्रतिक्रमणक्रिया के और गुरुदत्त प्रायश्चित्त के द्वारा
सप्परिआवं सउत्तरगुणं च-- पश्चात्ताप और उत्तरगुण के सदाचरण से
खिष्पं उवसामेई -- शीघ्र शान्त (नाश ) करता है वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो ।-जैसे कुशल - वैद्य व्याधि ( रोग ) को नाश करता है उसीके समान ।। ३७ ।।
जहा विसं कुछ गयं -- जिस प्रकार कोष्ठगत ( पेट में गये हुए ) विष ( जहर ) को
मंतमूलविसारया - मंत्र और जडी-बूटी के जानकार विज्जा हणंति मंतेहिं - वैद्यलोग मंत्रों से उतार देते हैं
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