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शाता। मन मेरा आज हुलसाया, प्रभु के चरणों में आया। “समवसरण देवां रच्यो, सोहे सुमतिजिणिन्द । छत्र चामर सिंहासन आदि, सेवे सुर नर इन्द" दुन्दुभि बाज रही असमान ॥ सु० ॥१॥ ज्ञान के भेद बतलावे, मति श्रुत अवधि मन भावे । मुनि के मनपर्यव जानो, पंचम केवलज्ञान पहेचानो । “मति अठवीस श्रुत चौदह, अवधि भेद असंख। दोय भेद मनपर्यव दाख्या, पंचम पद निष्कलंक ।" एकलो कहिये केवलज्ञान ॥ सु० ॥ २ ॥ ज्ञान या गुरुनाम को गोपे, आगम अरु अर्थको लोपे। पढ़ते को अन्तराय देवे, अक्षर पद कविनय से लेवे । “करे आशातना ज्ञान की भगवती में अधिकार । ज्ञानी ऊपर द्वेष मत्सरता, ते रुले या संसार ।" आतमा इम पावे अज्ञान ॥ सु० ॥२॥ आशातना ज्ञान की करता, पशु जिम चौरासी भमता । अहिंसा सिद्धान्ते भाखी, ज्ञान के पीछे ही राखी "देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान । ज्ञान आराधन कारणे सरे, इम भाषे भगवान ।"बढावो ज्ञान-द्रव्य अरु ज्ञान ॥ सु०॥४॥शुक्लपक्ष पञ्चमी साधो, भलीपरे ज्ञान आराधो। ज्ञान से क्रिया भी शोभे, दर्शन से कभी नहीं क्षोभे । "करो उद्यापन भाव से, राखो चित्त उदार । मूत्र लिखावो ज्ञान सिखावो, उपकरण दो श्रीकार।" जिन्होंसे पामो निरमल ज्ञान ॥ सु० ॥५॥ धातकीखंड मझारी, सुन्दरी जिनदेव की नारी । ज्ञान के उपकरण दिये बाल, हुई गुणमंजरी बेहाल ।
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