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( १३५) अरिहंत जिनशासन संस्थापक, केवलज्ञान प्रकाशी रे, आत्मगुणों की शान्ति प्रसारक, पदवी ली अविनाशी रे।
मुन० २ सिद्धशिला पे अविचल पद ले, नित्य निरंतर सुख में रे, सिद्धप्रभु करुणा के सागर,सुमरण कर मन मुख में रे।
सुन० ३ अनुशासक शासन में हैं जो, श्री आचार्य प्रतापी रे, स्थिर रह कर सबको स्थिर करते, मुदुवाणी आलापी रे।
सुन० ४ सब जन को सदज्ञान के दाता, अंगोपांग के पाठी रे, उवज्झाय बहु गुणधारक, दूर करे भव घाटी रे ।
सुन० ५ समताभावे वरते निशदिन, मुनिवर आनंदकारी रे, समभावी बन ध्यावो हरदम, होगा नैया पारी रे।
सुन० ६ मंगल में यह उत्तम मंगल, पूरव सार कहाया रे, सरि यतीन्द्र' प्रमोदित भावे, परमेष्ठिपद गाया रे।
सुन० ७ ७८. परमेष्ठिस्तवन ।
(मारा माथाना मोड रे मनडांनी–तर्ज) करी हैयानो हार जिन आगमनो सार,
रुडा नवकार मन्त्र ने आराधीए;
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