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(१२८) मम्मनसेठने महनत करके, लक्ष्मी खूब उपाई । आखिर मरके गया नरक में, अकेला दुख पाई ॥ ल० ॥१॥ नन्दराय स्वर्ण डूंगरियाँ, अतिहूंसे निरमाई । चन्द्रगुप्तने निकाल उसको, छीनी खिन में आई। ल० ॥२॥ रत्नद्वीप में गया सागर, लालच मन में लाई। मर कर वो गया श्वभ्र में, मनुज जन्म गमाई ॥ल० ॥३॥ दानवीर बनो इस जगमें, मूजीपन दो भगाई। सूरियतीन्द्र सीख सयानी, धर लो हीयके माई ॥ ल० ॥४॥
७१. श्रीआदिनाथ स्तवन । ( मन डोले मेरा तन डोले मेरे दिल का -तर्ज) सुखकर्ता भवदुःखहर्ता तुम दर्शन ओ ! भगवान रे, दर्शनसे दर्शन पानेको, ज्ञान दर्शन चरित्र मैं, जन्म अनन्ते पाया, फिर फिर करते इस चक्करका,
अन्त न अब तक आया, प्रभुजी० फिरते फिरते श्रद्धा धरते, पाया है देवसद्गुरु योग रे, दर्शनसे० । १ रागीके संसर्गसे बढता, राग महादुःखकारी, नाथ निरंजन तुम दर्शनसे,
आत्मा बने अधिकारी, प्रभुजी० तुम त्यागी मैं हूँ रागी, धरता निशदिन तुम ध्यान रे, दर्शनसे ।२
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