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(१३८) सूत्र पाठ बोलते हुए क्रमशः एक, एक और दो लोगस्स के काउस्सग्ग कर सिद्धाणं बुद्धाणं कहने तक । ३ वन्दनावश्यक-मुहपत्ति की प्रतिलेखना कर दो वांदणा देने तक । ४ प्रतिक्रमणावश्यक-राइयं आलोउँ जो मे राइओ अइयारो० सव्यस्सवि राइअ०, एक नवकार, वंदित्तु०, वांदणा दो, अभुडिओ०, दो वांदणां, आयरियउवज्झाए० कहने तक । ५ कायोत्सर्गावश्यक-बाद में फरेमि भंते, इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० कह कर चार लोगस्स का कायोत्सर्ग पारके लोगस्स कहने तक तथा ६ प्रत्याख्यानावश्यक-फिर मुखवस्त्रिका पडिलेहण कर दो वांदणा, सकलतीर्थ, पञ्चक्खाण लेकर, समाप्ति सूचक विशाललोचनदलं०, नमुत्थुणं० बोलने तक ।
प्रतिक्रमणक्रिया में छः आवश्यक के अलावा जो क्रिया की जाती है, वह सब सामायिक युक्त प्रतिक्रमण का काल पूर्ण करने के लिये समझना चाहिये । दैवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण में स्त्रियों (साध्वी-श्राविकाओं) को 'नमोऽस्तु. वर्द्धमानाय' और 'विशाललोचनदलं' के एवज में 'संसारदावानल० का तीन श्लोक बोलना । नमोऽहत्सि० तथा 'वरकनक' नहीं बोलने की शिष्ट मर्यादा है।
८१. सामायिक के ३२ दोष । मन के दश-१ वैरी को देख कर क्रोध करना, २ अविवेक (खोटा) विचार करना, ३ अर्थ-विचार न करना,
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