________________
[ xix ] मुनि सुन्दरसूरी कृत अध्यात्म कल्पद्रुम पन्द्रहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है जिसमें आत्मा सम्बन्धी व्यावहारिक और आचरणीय अनेक अनुष्ठान का दिग्दर्शन कराया है।
अठारहवीं शताब्दी में विनयविजयजी ने और उपाध्याय यशोविजयजी ने योग की सरिता प्रबल धारा से प्रवाहित की है। उन्होंने योगविषयक अनेक ग्रन्थों की रचना करके योग मार्ग का विविध रूपता से पथ प्रदर्शित किया है।
__ अध्यात्म उपनिषद् ग्रन्थ में आपने शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग के सम्बन्ध में बहुमुखी चर्चा, वार्ता, विचारणा प्रस्तुत करके जैन दर्शन का तात्त्विक योग प्रतिपादित किया है।
___ योगावतार बत्तीसी में आपने मुख्यतया पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित योग-साधना का जैन प्रक्रिया के अनुसार विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त उपाध्याय जी ने हरिभद्रसूरी जी कृत योगविंशिका एवं षोडशक पर टीकाएँ लिखकर उसमें अन्तर्निहित गूढ़तत्त्वों का उद्घाटन किया है। उन्होंने पातञ्जल योगसूत्र पर जैन सिद्धान्त के अनुसार जो कलम उठाई है वह अत्यधिक प्रशंसनीय है। वृत्ति अल्पकाय होने पर भी उसमें उन्होंने अनेक स्थानों पर सांख्य विचारधारा का जैन विचारधारा के साथ साम्य भी दर्शाया है और अनेक स्थानों पर युक्ति एवं तर्क के साथ प्रतिपादन भी किया है।
शारीरिक समस्याएँ, मानसिक तनाव और वैचारिक भिन्नता के युग में यौगिक अनुभव प्राप्त करना विशेष आवश्यक है। तनावग्रस्त मानव सुख,शान्ति और आनन्द की उपलब्धि तो चाहता है किन्तु ज्ञानवत् आचरण का अभाव होने से मंजिल से पतित होना स्वाभाविक है। प्राकृतिक और अर्जित शक्ति को उजागर करने के लिए योग का अनुभव साधक के लिए स्थायी उपाय है। ऐसा सोचकर योग विषयक ग्रंथों का गहराई से परिशीलन किया और जैन योग के जिज्ञासु समस्त साधना पद्धति का सहज ही ज्ञान प्राप्त करें इसी हेतु से शोध प्रबन्ध का निर्माण हुआ।
गुरुकृपा और दृढ़ श्रद्धा से क्या नहीं हो सकता है? इसी भावना से मैंने शोध प्रबन्ध का कार्य सन् १९७५ में प्रारम्भ किया। गंभीर विषय, साध्वी जीवन, ग्रंथों का अभाव, पुस्तकालयों में पैदल जाना इत्यादि अनेक कठिनाइयों के उपरांत भी यह प्रबन्ध पूर्ण हो सका यह निश्चय ही गुरुकृपा का प्रतिफल है।
योग याने जुड़ जाना मेरी चेतना भी जुड़ गई राष्ट्र संत, जैन जगत के भूषण १००८ आचार्य प्रवर आनन्द ऋषि जी म.सा. की पुण्यमयी प्रेरणा से । जन-जन के हृदयेश्वर ! राजयोगी की अन्तःकरणपूर्वक भावना ने मुझे परम योगी आदिनाथ के साथ जोड़कर अयोग के अनुशीलन के प्रति आकर्षित किया। आज आत्म-आनन्द