Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
अतएव असत्य है।
सभी वस्तु प्रतिक्षण नष्ट होने वाली मानने पर पाप का फल भोगने की मान्यता भी मिथ्या हो जाती है। चोरी करने वाला चोर या हत्यारा, वह क्षण बीत जाने पर अन्य क्षणों में दण्ड का भागी नहीं रह सकेगा और जो दण्ड भोग रहा है, वह कोई दूसरा प्राणी ही माना जायगा । इस प्रकार कृतनाश (किये हुए कर्म का फल नष्ट होना)और अकृतागम (नहीं किय का फल पाना)ये दो महान् दोष आ जावेंगे । अतएव एकान्त क्षणभंगुरत्व की मान्यता मिथ्या है और द्रव्यापेक्षा ध्रुवत्व मानना सत्य है ।
क्षणिकवादी शतमति के चुप रह जाने पर 'महामति' नाम का चौथा मन्त्री बोला
" स्वयंबुद्धजी ! आप-हम सब माया के चक्कर में पड़े हुए हैं। हम जो कुछ देखते हैं और आप जो कुछ कहते हैं, यह सब माया का ही प्रपञ्च है । न तो कोई वस्तु ध्रुव है, न क्षणभंगुर, सब माया ही माया है । माया के अतिरिक्त दूसरा कोई तत्त्व नहीं है। हम जो कुछ जानते-देखते हैं, यह सब का सब स्वप्न एवं मृगतृष्णा के समान मिथ्या है। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, धर्म-अधर्म, अपना-पराया, आदि बातें सब व्यवहार के लिए है। तत्त्व से तो ये सभी बातें मिथ्या है ।
जिस प्रकार एक गीदड़, मांस का टुकड़ा मुँह में दबा कर नदी के किनारे आता है। वहाँ मच्छी को देख कर ललचाता है और मांस को एक ओर रख कर मच्छी पकड़ने को झपटता है, किंतु मच्छी पानी में लुप्त हो जाती है और उधर मांस के लोथड़े को गिद्ध पक्षी उठा ले जाता है। वह अप्राप्त मच्छी की आशा में प्राप्त मांस को भी खो बैठता है । इसी प्रकार जो लोग, परलोक की आशा से इस लोक के प्राप्त सुखों को छोड़ते हैं, वे दोनों ओर से भ्रष्ट होते हैं और अपनी आत्मा को धोखा देते हैं।
पाखंडी लोगों के मिथ्या उपदेश सुन कर और नरक से भयभीत हो कर मोहाधीन प्राणी, व्रत और तप के द्वारा देह दमन करते हैं, वे अज्ञानी हैं।"
महामति की मिथ्या वाणी सुन कर महामन्त्री स्वयंबुद्ध ने कहा--" यदि संसार में सभी वस्तु असत्य और माया (भ्रम) मात्र हो, तो जोव अपने कृत्यों का कर्ता भी नहीं हो सकता और भोक्ता भी नहीं हो सकता । यदि सब स्वप्न के समान ही हो, तो जिस प्रकार स्वप्न में प्राप्त धन, सम्पत्ति, रमणी और हाथी आदि मिथ्या होते हैं, वैसे प्राप्त साधन भी मिथ्या ही होना चाहिए ? फिर मिथ्या वस्तु का लोभ ही क्या और राज-सेवा आदि से धन आदि की प्राप्ति का प्रयत्न ही क्यों होता है ? यदि पदार्थो
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