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तत्त्वार्थसार 'समन्तभद्र' इस श्रुतिमधुर चामसे लोकमें प्रसिद्ध हर। इनके गुरुका क्या नाम था और इनकी क्या गुरुपरम्परा थी, यह ज्ञात नहीं हो सका। वादी, वाग्मी और कवि होनेके साथ आद्य स्तुतिकार होनेका श्रेय आपको हो प्राप्त है। आप दर्शनशास्वफे तलदृष्टा और विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। एक परिचय-पद्यमें तो आपको देवज्ञ, वैद्य, मान्त्रिक और तान्त्रिक होने के साथ आज्ञासिद्ध तथा सिद्धसारस्वत भी बतलाया है। आपकी सिंह गर्जनासे सभी बाबिजन कांपते थे। आपने अनेक देशों में विहार किया और वादियोंको पराजित कर उन्हें सन्मार्गका प्रदर्शन किया। आपको उपलब्ध कृतियां बड़ो ही महत्त्वपूर्ण, संवि, स्या गंभीर सलामउ.मा । उनले न ३रू प्रकार है
१ बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २ पुश्त्यनुशासन, ३ आप्तमीमांसा, ४ रत्नकरण्डश्रावकाचार और ५ स्तुतिविद्या । इनका समय विक्रमकी २-३ शताब्दी है । पूज्यपाद
थवणवेलगोलाके शिलालेख में० २५४ और ६४ के उल्लेखानुसार आपके देवनन्दी, जिनेन्द्रबुद्धि और पूज्यपाद ये तीन नाम प्रसिद्ध हैं ।२: यह आचार्य अपने समय बहुभुत विद्वान थे। इनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। यही कारण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंने बड़े सम्मानके साथ आपका संस्मरण किया है। जिनसेनाचार्यने अपने आदिपुराणमें इनका संस्मरण वैयाकरणके रूपमें किया है। वास्तवमें आप अद्वितीय वैयाकरण थे। आपके जैनेन्द्रध्याकरणको नाममालाकार धनंजय कधिने अपश्चिमरत्न कहा है। आप विक्रम संवत् ५२६ से पूर्ववर्ती विद्वान सिद्ध होते हैं। अबतक आरके निम्नाङ्कित ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं
१ जैनेन्द्रव्याकरण, २ सर्वार्थसिद्धि, ३ समाधिमन्त्र, ४ इष्टोपदेश और ५ भकिसंग्रह । अकलङ्क भट्ट
यह लघुहब नामक राजाके पुत्र थे और भट्ट इनको उपाधि थी। यह विक्रमकी सातवीं शताब्दी के प्रतिभासंपन्न आचार्य थे। अफलंकदेव जैनन्यायके व्यवस्थापक और दर्शनशास्त्रके असाधारण पण्डित थे। आपकी दार्शनिक कृतियोंका अभ्यास करनसे आपके तलस्पर्शो पाहित्यका पद-पदपर अनुभव होता है। उनमें स्वमतसंस्थापनके साथ १. आचार्योऽहं कबिरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं
देवशोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्ताम्बिकोहम् । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया.
माज्ञासिद्धः किमिति बहुधा सिद्धसारस्थतोऽहम् । २. प्रागम्मघायि गुरुणा किल देवनन्दी बुद्धया पुनविपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः ।
श्रीपूज्यपाद इति चैष बुनः प्रचल्ये यत्पूजिते: पदयगे वनदेवताभिः ।। ३. यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ।
ओपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पाययुगं यदीयम् ॥