Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 19
________________ प्रस्तावना है। उसके सत् संख्यादि सूत्र में सदादि अनुयोगोंके द्वारा जो तत्वका निरूपण हुया है यह पूज्यपादस्वामीके आगमविषयक ज्ञानकी महत्ता बतलाने के लिए पर्याम है। इन्होंने प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके लक्षण तथा द्रव्यस्वरूपके वर्णनमें दर्शनशास्त्रको पद्धतिको भी अपनाया है । परन्तु उसे इतनी सुगम रीतिसे लिखा है कि पाठकका मन उसे अनायास ग्रहण कर लेता है। पूज्यपाद वैयाकरण तो थे ही, इसलिये जहां तहाँ व्याकरणका भी निर्देश मिलता है। सर्वार्थसिद्धिकी कितनी ही पंक्तियोंको अकलंकस्वामीने राजपातिकमें पातिकका रूप देकर अपने ग्रंथका अङ्ग बना लिया है । ___ अकलंफस्वामी के समय दर्शनशास्त्रका प्रचार अधिक हो गया था, इसलिये तत्त्वार्थ राजवातिकमें हम बीच-बीचमै अन्य दर्शनोंको चर्चाको भी अधिक मात्रा में पाते हैं और उसके कारण तत्वार्थवातिकके कितने ही स्थल दुरूह हो गये हैं परन्तु पार्तिकोंकी वृत्ति लिखते समय उन्होंने जिस सरल भाषाका प्रयोग किया है उससे ग्रंथके प्रति पाठकका आकर्षण बना रहता है। भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसीसे प्रकाशित तत्त्यार्थ राजवातिकके संपादन में उसके संपादक डॉ महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्यन भारी श्रम किया है। उसको परम्परागत अशुद्धियों को दूरकर तथा दार्शनिक स्थलों को स्पष्ट कर इम सर्वसाधारणके लिए सुगम बना दिया है। विद्यानन्दस्वामीके समय तक दर्शनशास्त्रका इतना अधिक प्रचार हो गया था कि उसने धर्म, व्याकरण तथा साहित्यमें भी प्रवेश पा लिया था । सिवानन्दस्वामी दर्शनशास्त्रके महान् विद्वान् थे। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रपर जो भाष्य लिखा उसमें दार्शनिक तत्त्वोंका पूर्ण प्रवेश हो गया। अर्थात् दार्शनिक तत्त्वोंके विवचनकी हो प्रचुरता हो गई और धर्मशास्त्रका अंश गौण पड़ गया। दार्शनिक भागकी बहुलतास यह माष्य दुरूह हो गया । और विशिष्ट बुद्धिवाले विद्वानोंके ही गम्म रह गया। प्रसन्नताको बात है कि न्यायशास्त्रके अद्वितीय विद्वान् पं० माणिकचन्द्र जो न्यायात्रार्यने इस महान ग्रन्थकी हिन्दी टीका लिखकर उसे सर्वसुलभ बना दिया है। हिन्दी टोका सहित श्लोक वार्तिकका प्रकाशन कुन्थुसागर ग्रन्थमाला सोलापुरसे चाल है। भास्करनन्दिको सुखबोध दीका अपने नामके अनुरूप है। इसमें सरलतारी तत्त्वार्थ के स्वरुपका प्रतिपादन किया गया है। पं० शान्तिराजजी न्यायतीर्थके द्वारा संपादित होकर मैसूरसे प्रकाशित हुई है। विद्वान संपादकने भूमिकामें अच्छा विमर्श किया है। श्रुतसागरकी तस्वार्थवृत्ति अत्यन्त सरल और बहुत प्रमेयोंसे भरी हुई है। धीमान् डॉ. महेन्द्रकुमारजीके द्वारा संपादित होकर मारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुकी है । भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अन्य टीकाएँ मेरे देखने में नहीं आई। उनका उल्लेख भास्करनन्दिको सुख बोध टीका सहित तत्त्वार्थसूत्रको प्रस्तावनाके आधार पर किया गया है।। संस्कृत टीकाकारोंका परिचय समन्तभद्र समन्तभद्र, क्षत्रिय राजपुत्र थे । उनका जन्मनाम शान्तिवर्मा या किन्तु बादमें आप

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