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प्रस्तावना
स प्राणिसंरक्षणसावषानो बभार योगी किल गृधपिज्वान् ।
तदा प्रभृत्येव खुषा यमाहुराचार्यशब्बोत्तरगृधपिच्छम् ॥१२॥ उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खामसे अनेफ मुनिरूप रत्नोंको माला प्रकट हुई। उसी मुनिरूपी रत्नमालाके बीच में मणिके समान श्रीकुन्दकुन्द नामसे प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए। उन्हीं कुन्दकुन्दस्वामीके पवित्र वंशमें समस्त पदार्थोंके ज्ञाता श्रीउमास्वाति मुनि हए, जिन्होंने जिनागमको सूत्ररूपमें निबद्ध किया। यह समास्थाति महाराज प्राणियों की रक्षामें अत्यन्त सावधान थे, इसलिये उन्होंने ( मयूरपिच्छके गिर जानेपर ) गृनपिछीको धारण किया था । उसी समयसे विद्वान् लोग उन्हें गुपिच्छाचार्य कहने लगे। मसूर प्रान्त के अन्तर्गत नागरप्रान्तके छयालीसवें शिलालेखमें लिखा है--
तत्वार्थसूत्रकारमुमास्वातिमुनीश्वरम् ।
श्रुतकेवलिवेशीयं बन्देऽहं गुणमन्दिरम् ।। में तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता, गुणोंके मंदिर एवं श्रुतकेवलोके तुल्य श्रीउमास्वाति मुनिराजको नमस्कार करता हूँ। ___ मही उमास्वाति आचार्य, उमास्वामी और गृद्धपिच्छाचार्य नामसे भी विख्यात है । घवलाटीका श्रीबोरसेनाचार्य ने कालश्यका वर्णन करते अपग ' गिटापिन्याहारपप्पयासिबतच्चस्थसुत्तेवि' इन शब्दोंके द्वारा तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताको गृपिच्छाचार्य लिखा है । सन् ९४१ में निर्मित कर्णाटक आदिपुराणम महाकवि पम्पने तमास्वामीको "आर्यनुतगधपिच्छाचार्य' लिखा है । इसी तरह सन् १७८ में रचित कर्णाटक विपतिलक्षण पुराणमें उसके कर्ता चामुण्डरायने भी उमास्वामीको गृध्रपिच्छाचार्य लिखा है।'
१९५० ईशबीयके लगभग रचित कर्णाटक पार्श्वपुराणमें उसके रचयिता पाव. पण्डितने तत्यार्थ सूत्रके कर्ताका उमास्वाति नामसे स्तवन किया है।
सन् १३२० के लगभग विरचित कर्णाटकभाषाके समयपरीक्षा ग्रंथम उसके कर्ता ब्रह्मदेव कविने उमास्वामीका गृधपिच्छाचार्य के नामसे उल्लेख किया है।
तत्त्वार्थसूत्रकरिं गद्मपिच्छोपलक्षितम् । धन्वे गोन्द्रसंजामुमास्वामिमुनीश्वरम् ।।
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१. वसुमतिगे नेगले तत्त्वार्थसूत्रमं वरेद गृध्रपिच्छाचार्यर ।
असदि दिगन्तम मु दिसि जिनशासनद महिमयं प्रकटिसिदर ||३|| १. अनुपमतत्त्वार्थ पुण्यनिबन्धन मप्युदै तु पनदोलने
दृने खेलसियते वेलसिके निशमुभास्वातिपादयति पादयुगम् ।। ३. नगदोलगुस्ल सुतस्वम नगणित मननवभेदभित्रस्थितियम् ।
सुगमदि मरि वन्निरे ये लद गुणाढ्षं गृध्रपिच्छमुनिकेवलने ।