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(४८) या, ऐसेंही इस संशयसें भी बचाइये. आपके विना और किसके आगे हम अपने दिलकी बातें करें"? तब श्रीविश्नचंदजीने श्रीआत्मारामजीके पास अपने चेले चंपालालजीके प्रत्यक्ष सवाल जवाब करके चंपालालजीको ठीकठीक निश्चय करा दिया. उस दिनसें चंपालालजीने भी शुद्ध श्रहा धारण की. बाद श्रीविश्नचंदजीने तो, लुधीयानासे विहार कर दिया, और रस्ते में गुरूके झंडीआलाके श्रावक " मोहरसींघ १५ “वशाखीमल्ल मालकौंस" और जमृतसरवाले लाला “बूटेराय ज्वहरीको प्रतिबोध किया. तथा साधु “हुकमचंदजी-हाकमरायजी' को भी श्रीविश्नचंदजीने प्रतिबोध किया, इसतरह श्रीविश्नचंदजी, और चंपालालजीकी मददसे श्रीआत्मारामजीकी श्रद्धाके आदमियोंकी गिनती बढने लगी; और ढुंढक श्रद्धान रूप अजीर्ण दूर होता चला.अनुक्रमे श्रीविश्नचंदजी वगैरह पट्टी गाममें गये. वहां लाला" घसीटामल्ल ” जो पूज्य अमरसींहका मुख्य श्रावक था, तिसके साथ बातचीत हुई. जिससें लाला घसीटामल्लके दिलमें भी कितनेही शक पैदा होगये.तब घसीटामल्लने पूर्वोक्त संशयको दूर करके निर्णय करनेके वास्ते, श्रीविश्नचंदजीके कहनेसे अपने पुत्र “अमीचंदजी' को व्याकरण पढाना शुरू कराया. जब वो पढकर तैयार होगया, तब घसीटामल्लने कहा कि, "पुत्र ! किसीका भी पक्षपात न करना, जो शास्त्रमें यथार्थ वर्णन होवे, सो तूं मुजे सुनाना. तब अमीचंदने कहा कि, "पिताजी! जो कुच्छ, श्रीमहाराज आत्मारामजी,तथा विश्नचंदजी वगैरह कहते हैं,सो सर्व ठीक ठीक है. और पूज्य अमरसींहजी, तथा उनके पक्षके ढुंढक साधुओंका जो कुच्छ कथन है, सो सर्व असत्य, और जैनमतसें विपरीत है. '' यह सुनकर लाला घसीटामल्ल भी ढुंढकमतको छोडके शुद्ध श्रद्धानवाले होगये.पूर्वोक्त अमीचंद इस समय गुजरात-मारवाड-पंजाब वगैरह देशोंमें “पंडित अमीचंदजी" के नामसें प्रसिद्ध है, और प्रायः श्रीआत्मारामजीके संवेगमत अंगीकार किया पीछे,जितने नूतन शिष्य हुये, सर्वने थोडा बहोत जरूरही पंडितजी अमीचंदजीके पास विद्याभ्यास किया,बलकि अबतक कियेही जाते हैं.
पट्टीसें विहार करके श्रीविश्नचंदजी, हुकमचंदी, हाकमरायजी, चंपालालजी वगैरह श्रीआत्मारामजीके पास, जो लुधीयानासे विहार करके शहर "जलंधर में आये हुये थे, पहुंचे.क्योंकि, वहां श्रीआत्मारामजीकी, और अजीवपंथी "रामरतन" और "वसंतराय की अजीवपंथ संबंधी चर्चा होनेके वास्ते निश्चय होगया था. इस अवसर पर २७ शहरोंके श्रावक आये हुये थे, और पादरी तथा ब्राह्मण पंडितोंको मध्यस्थ नियत किया था. जिसमें रामरतन और वसंतराय हार गये, और श्रीआत्मारामजीकी जीत हुई. तथापि रामरतन वगैरहने अपना' हठ छोडा नहीं. सत्य है कि, जिसका जो स्वभाव पडजावे, मरणर्पयत भी वो स्वभाव प्रायः तिसका दूर नहीं होता है. यतः॥ यो हि यस्य स्वभावोस्ति । स तस्य दुरतिक्रमः॥
श्वा यदि क्रियते राजा। किं न अत्ति उपानहम् ॥१॥ भावार्थः-जो जिसका स्वभाव है, वो तिसका दूर होना मुश्किल है. क्या यदि कुत्तेको राजा बनाइये, तो वो जुतीको भक्षण नहीं करता है ? अपितु करताही है.
जालंधरसें जयपताका लेकर विहार करके श्रीआत्मारामजी, तथा विश्वचंदजी वगैरह अमृतसरमें आये, और श्रीआत्मारामजीने, लाला " उत्तमचंदजीकी” बैठकमें उतारा किया, और
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