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[ पन्द्रह ) एहवू सुपनते देखी ने थया जागृत तत्काल ।
अरूणोदय थयो तत् क्षिणे, मन में थयो उजमाल ॥ स्वप्न में सुमेरू पर्वत पर इन्द्रों द्वारा प्रभु के जन्म महोत्सव का दृश्य देखकर देवी धन्ना का रोम-रोम पुलकित हो उठा । इस स्वप्न का क्या फल होगा यह जानने की तीव्र उत्कंठा पंदा हुई। सौभाग्य से गच्छनायक श्री जिनचन्द्रसूरिजी का कुछ दिनों के बाद ही वहां शुभागमन हुआ । पुण्यवान दम्पत्ति ने उनके समक्ष अपने स्वप्न की चर्चा की। यह सुनकर आचार्य श्री अत्यन्त प्रसन्न हए और बोले कि देवी! तुम्हें एक महान भाग्यशाली पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यह पुत्र या तो छत्रपति होगा या सर्व विद्यानिधान पत्रपति होगा। यह सुन माता को बड़ा हर्ष हुआ।
प्राचार्य श्री के कथनानुसार स. १७४६ में बालक का जन्म हुआ । नवजात बालक का नाम देवचन्द्र रखा गया। जब बालक ८ वर्ष का हुआ तब वाचकवर्य राज सागरजी विहार करते हुए पुन: वहां पधारे। माता-पिता ने अपनी भावना और प्रतिज्ञा को स्मरण कर उस पुत्ररत्न को गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। दो वर्ष तक बालक देवचन्द को राजसागरजी ने अपने पास मुमुक्षु के रूप में रखा । बालक की तीव्र बुद्धि, आलौकिक प्रतिभा एवं विशिष्ट गुणों को देखकर गुरु श्री ने शुभ मूहुर्त में स. १७५६ में सकल संघ की उपस्थिति में मुनिधर्म की दीक्षा दी। अब आप का नाम राज विमल रखा गया । दो वर्ष के पश्चात् आपकी बड़ी दीक्षा आचार्य श्री जिन चन्द्रसूरि' के सानिध्य में सम्पन्न हुई यद्यपि आपका नाम राज विमल जी रखा गया किन्तु वे श्रीमद् देवचन्द्र के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। केवल उनकी दो एक कृतियों में राज विमल नाम मिलता है ।
१-खरतर-गच्छ में प्रत्येक चौथे पट्टधर का नाम जिनचन्द्रसूरि रखने की "प्राचीन परंपरा है । ये जिन चन्द्र सूरि ६५ वें पट्टधर थे। इनका शासनकाल १७११ से १७६२ तक रहा।
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