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[ तेरह ]
श्रीमद् देवचन्द्र सन्त सदा ही देश और समाज के पथ-प्रदर्शक रहे हैं क्योंकि वे प्रात्म सौन्दर्य की खोज में समस्त सांसारिक इच्छाओं के विजेता होते हैं । वे वैराग्य की मस्ती में अपने समग्र जीवन को समर्पित कर देते हैं । ज से ज से आत्मा की अनन्त गहराई में उतरते हैं व से बसे उसमें "प्रात्मवत् सर्व भूतेषू' की भावना बढ़ती जाती है। मैत्री भाव का पावन स्रोत उसकी अन्तरात्मा से फूट पड़ता है । यही कारण है कि उनकी साधना 'स्वान्तसुखाय' होते हुए भी 'परजन हिताय' बन जाती है। उनकी वाणी देश. काल की सोमा को लांधकर मानव मात्रा की उपकारक होती है उनकी कृतियों मानवजीवन की समस्त गुत्थियों का ठोस आध्यात्मिक हल देने के साथ आत्मविकास की सर्वागीण मीमांसा करती हैं, अत एव वे मानव-जाति की अमूल्य धरोहर बन जाती है।
जब कभी धरती का पुण्य जगता है, समय का भाग पलटता है तब ऐसी विमूतियां अवतीर्ण होती हैं । श्रीमद् देवचन्द्र १८ वीं शताब्दी की ऐसी ही एक विरल विभूति थे, जिन्होंने अपनी ज्ञान और संयम की साधना से एक ऐसी ज्योति दी जो प्रकाश स्तम्भ (Search Light) की तरह अज्ञान के अंधेरे में भटकती हुई मानव जाति को दिशा निर्देश करती रहेगी।
श्रीमद् प्रकाण्ड विद्वान, समर्थ लेखक, भक्त-कवि ही नहीं किन्तु अध्यात्मयोगी महापुरुष थे । गन्म और दीक्षा
पुण्यभूमि भारत के इतिहास में राजस्थान का स्थान महत्वपूर्ण है। इस महिमा शाली धरा ने जहां पान पर प्राण न्यौछावर करने वाले वीरों को जन्म दिया वहां भक्तिरस की सरिता वहाकर जन मानस के विकारों को धो डालने वाले भक्तों और तिक-जीवन की पावन प्रेरणा देने वाले सन्तों को भी जन्म दिया।
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