________________
क्रिकेट और उसमें भी कपिल देव के बारे में विशेष प्रश्न पूछे थे, कुमारपालजी तब तक क्रिकेट विशेषज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। मैंने साहित्य से संबंधित प्रश्न पूछा तो उन्होंने कहा कि कम से कम इस विषय पर प्रश्न तो पूछा गया। यह मेरा उनसे पहला परिचय था।
मैं 1995 में गुजरात युनिवर्सिटी के भाषा-साहित्य भवन में हिन्दी के अध्यापक के रूप में आया, उसके बाद कुमारपालजी से नियमित मिलना होने लगा। हमारे कमरे आमने-सामने थे। यद्यपि भाषा-साहित्य भवन की आबोहवा में गंभीरता एवं आभिजात्य की प्रबलता है, फिर भी कुमारपाल देसाई जब भी मिले ऊष्मापूर्ण ढंग से मिले । भाषा-साहित्य भवन के इस माहौल में पूरी तरह ढलना अभी भी संभव नहीं हो पाया है। आज भी विद्यार्थी नि:संकोच मिलते हैं, उस समय तो बहुत आते थे, जिससे काम में रुकावट भी पड़ती थी। दूसरी ओर, कुमारपालजी के रूम में मैंने कभी शोरगुल नहीं सुना। उनका आना, विद्यार्थियों से मिलना कुछ इस तरह से सुचारु रूपसे चलता था कि यदि उनसे मुलाकात नहीं हो, तो लगे ही नहीं की वे उपस्थित हैं।
कुमारपाल देसाई गुजराती विभाग के अध्यक्ष बने और गुजराती विभाग में कार्यक्रमों की भरमार होने लगी। उनके गुजरात साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष बनने से तो कई महत्त्वपूर्ण सेमिनारों से भाषा-भवन के विद्यार्थी लाभान्वित हुए हैं । इन कार्यक्रमों में भाग लेते हुए जिसका मैंने अनुभव किया, उसका उल्लेख किए बिना नहीं रह सकता। ‘सेमिनार कल्चर' के विकसित होने पर जहाँ 'पुरानी पूंजी' को ही वाग्जाल से नया करके पेश किया जाता है, वहाँ कुमारपालजी विषय के बारे में पर्याप्त तैयारी के साथ सेमिनार में आते थे। फिर चाहे प्रासंगिक उद्बोधन हो या आधार वक्तव्य, उन्होंने इस बारे में निराश नहीं किया। ___डॉ. कुमारपाल देसाई जैन दर्शन पर व्याख्यान देने प्रतिवर्ष विदेश जाते हैं। वैसे तो उनके विदेश प्रवास का पता समाचार पत्र से मिलता था, लेकिन किसी आलेख को हिन्दी में प्रस्तुत करना हो तो कुमारपालजी मुझे अवश्य याद करते। इसी तरह अपनी हिन्दी पुस्तक के बारे में मेरी राय जानते
और उसे गंभीरता से लेते। 'अपाहिज तन अडिग मन' पुस्तक के शीर्षक को लेकर काफी विचारमंथन किया गया। बाद में यह शीर्षक निश्चित हुआ।
डॉ. कुमारपाल देसाई भाषा-साहित्य भवन के अध्यक्ष बने और कुछ समय में गुजरात युनिवर्सिटी के कला संकाय के डीन नियुक्त हुए। अब इस नए दायित्व को भी वे सुचारु रूप से निभाते आ रहे हैं। कितनी पेचीदी समस्या हो, वे शांतिपूर्ण ढंग से उसे सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। इसमें उनका एक महत्त्वपूर्ण गुण बहुत सहायता करता है । वह है संयम । वे मितभाषी तो है ही, अच्छे श्रोता भी हैं।
373 अलोक गुप्त