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वेद और पाश्चात्य विद्वान्
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इन्द्र को भुला दिया जाता है । दोनों में किसी प्रकार की स्पर्धा नहीं है और न उनमें प्रतियोगिता ही होती है । वेदोक्त धर्म में यह बहुत बड़ी विशेषता है ।" ↑
वैदिक साहित्य के दार्शनिक दृष्टिकोण के दो रूप थे । एकदेवतावाद और बहुदेवतावाद । बाद के काल में ईश्वर को व्यक्ति और सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार किया गया । यह कहा जा सकता है कि पूर्वकाल के बहुदेवतावाद ने बाद में एकदेवतावाद को स्थान दिया । ईश्वर की सर्वव्यापकता को स्वीकार किया गया है ।
वेदों में आत्मा के अस्तित्व के विषय में कोई विचार-विनिमय नहीं मिलता है । जीवात्मा बहुत समय तक परीक्षाओं के बाद शाश्वत मुक्ति के लिए प्रयत्न करता रहा । अतएव वर्तमान की उपेक्षा करके भविष्य को विशेष महत्त्व दिया गया । अतएव आदि निवासियों ने मृतात्मायों के लिए दो मार्ग स्वीकार किए, अर्थात् देवयान और पितृयाण । पुनर्जन्म में दृढ़ विश्वास होने के कारण उन्होंने जीवात्मा की सत्ता पर कोई सन्देह नहीं किया प्रतएव वेद के प्राचीन अंश प्राशावाद से पूर्ण हैं । इस प्रकार वे सिद्ध करते हैं कि प्रादिनिवासी मृत्यु के बाद उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते थे ।
† History of Ancient Sanskrit Literature by Max Muller. पृष्ठ ५४६