Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[25 ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप का आधार है। जिस प्रकार नेत्रों से मुख को सौन्दर्य प्राप्त होता है; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से ज्ञानादिक में सम्यकपने की प्राप्ति होती है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि - न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यतन्भृताम्॥ अर्थ – सम्यग्दर्शन के समान इस जीव को तीन काल तीन लोक में कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान तीन लोक, तीन काल में दूसरा कोई अकल्याणकारी नहीं है। भावार्थ यह है कि - अनन्त काल तो व्यतीत हो गया, एक समय वर्तमान चल रहा है और भविष्य में अनन्त काल आयेगा, इन तीनों कालों में और अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक - इन तीनों लोकों में जीव को सर्वोत्कृष्ट उपकारी, सम्यक्त्व के समान न तो कोई है, न हुआ है और न होगा।
तीन लोकों में विद्यमान ऐसे तीर्थङ्कर, इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि चेतन और मणि, मन्त्र, औषधि आदि जड़, यह कोई द्रव्य, सम्यक्त्व के समान उपकारी नहीं हैं और इस जीव का सबसे महान अहित-बुरा जैसा मिथ्यात्व करता है, वैसा अहित करनेवाला कोई चेतन या जड़द्रव्य तीन काल, तीन लोक में न तो है, न हुआ है, और न होगा; इसलिए मिथ्यात्व को छोड़ने के लिये परम पुरुषार्थ करो! संसार के समस्त दुःखों का नाशक और आत्मकल्याण को प्रगट करनेवाला एक सम्यक्त्व ही है; इसलिए उसे प्रगट करने का ही पुरुषार्थ करो!
समयसार नाटक में कहा है कि -
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