Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[41 करता है, परन्तु जब तक बन्धभाव की दृष्टि को छोड़कर, अबन्ध आत्मस्वभाव को नहीं पहिचान लेता, तब तक उसने आत्मदृष्टि से कुछ नहीं किया। वास्तव में तो बन्धभाव का प्रकार भी नहीं बदला, क्योंकि उसने समस्त बन्धभावों का मूल जो मिथ्यात्व है, उसे दूर नहीं किया है। बाह्यत्यागी.... किन्तु अन्तर-अज्ञानी अधर्मी है। :
अज्ञानी स्वयं खाने-पीने का, वस्त्र का और रुपये-पैसे इत्यादि का राग नहीं छोड़ सकता, इसलिए वह किसी अन्य अज्ञानी के बाह्य में अन्न-वस्त्र और रुपये-पैसे इत्यादि का त्याग देखता है तो वह यह मान बैठता है कि उसने बहुत कुछ किया और वह मेरी अपेक्षा उच्च है; किन्तु वह जीव भी बाहर से त्यागी होने पर भी अन्तरङ्ग में अज्ञान के महापाप का सेवन कर रहा है, वह भी उसी की जाति का है। जो अन्तरङ्ग की पहिचान किए बिना बाहर से ही अनुमान करता है, वह सत्य तक नहीं पहुँच सकता। बाह्य अत्यागी.... किन्तु अन्तर-ज्ञानी धर्मात्मा है। :
ऊपर जैसे त्यागी अज्ञानी का दृष्टान्त दिया है, अत्यागी ज्ञानी के सम्बन्ध में उससे उल्टा समझना चाहिए। ज्ञानी गृहस्थदशा में हो और उसके राग भी हो, तथापि उसके अन्तरङ्ग में सर्व परद्रव्यों के प्रति उदासीनभाव रहता है और वह राग का भी स्वामित्व नहीं मानता, वह धर्मात्मा है। जो ऐसे धर्मात्मा को आन्तरिक चिह्नों के द्वारा नहीं पहिचानता और बाहर से माप करता है, वह वास्तव में आत्मा को नहीं समझता। जो अन्तरङ्ग में आत्मा की पवित्र दशा को नहीं समझते, वे मात्र जड़ के संयोग से ही माप निकालते हैं। धर्मी और अधर्मी का माप, संयोग से नहीं होता, इतना ही नहीं,
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