Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[213 (18) स्वयं सत्य को समझ ले, वहाँ मिथ्यात्व अपने आप दूर हो जाता है, उसके लिये प्रतिज्ञा नहीं करनी पड़ती। कोई कहे कि अग्नि उष्ण है, —ऐसा मैंने जान लिया, अब मुझे 'अग्नि शीतल है' – ऐसा न मानने की प्रतिज्ञा दो, परन्तु उसमें प्रतिज्ञा क्या? अग्नि का स्वभाव उष्ण है ही, जहाँ ऐसा जाना, वहीं उसे ठण्डा न मानने की प्रतिज्ञा हो ही गयी। उसी प्रकार कोई कहे कि - ‘मिश्री कड़वी है'- ऐसा न मानने की प्रतिज्ञा दो! तो वैसी प्रतिज्ञा नहीं होती। मिश्री का मीठा स्वभाव निश्चित किया, वहाँ स्वयं वह प्रतिज्ञा हो गयी, उसी प्रकार जिसने आत्मस्भाव को जाना, उसके मिथ्यामान्यता तो दूर हो ही गयी। स्वभाव को यथार्थ जाना, उसमें 'मिथ्या न मानने की प्रतिज्ञा' आ ही गयी। जो सच्चा ज्ञान हुआ, वह स्वयं मिथ्या न मानने की प्रतिज्ञावालाा है। मिथ्यात्व को न जानना'- ऐसी प्रतिज्ञा माँगे तो उसका अर्थ यह हुआ कि अभी उसे मिथ्यात्व की मान्यता बनी हुई है और सत्य का निर्णय नहीं हुआ है। आत्मा के गुण-पर्याय को अभेद द्रव्य में ही परिणमित करके जिसने अभेद आत्मा का निर्णय किया, उसके अभेद आत्मस्वभाव की प्रतीतिरूप प्रतिज्ञा हुई, वहाँ उससे विपरीत मान्यताएँ दूर हो ही गई; इसलिए विपरीत मान्यता न करने की प्रतिज्ञा हो गयी। उसी प्रकार जिसने चारित्र प्रगट किया, उसके अचारित्र न करने की प्रतिज्ञा हो गयी।
(19) इस गाथा में अरहन्त जैसे आत्मा को जानने की बात की, उसमें इतना तो आ गया कि पात्र जीव को अरहन्तदेव के अतिरिक्त सर्व कुदेवादि की मान्यता दूर हो ही गयी है। अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर वहाँ नहीं रुकता, परन्तु अपने
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