Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[257 सिखाये बिना ही अनादिकाल से मिथ्याज्ञान चला आ रहा है। जीव यह अनादि काल से मान रहा है कि मुझे पुण्य से लाभ होता है और पर का कुछ कर सकता हूँ।
यद्यपि किसी पर से सुख-सुविधा नहीं होती, तथापि जिस पदार्थ से वह अपने शरीर के लिए सुख-सुविधा होती हुई मानता है, उस पर उसे प्रीति होती है और वह यह मानता है कि पुण्य से शरीर को सुख-सुविधा मिलती है; इसलिए अनादि काल से यह मान रहा है कि पुण्य से लाभ होता है। इसलिए (1) पुण्य से मुझे लाभ होता है और (2) जो शरीर है सो मैं हूँ तथा मैं शरीर के कार्य कर सकता हूँ, इस प्रकार की विपरीत मान्यता अनादि काल से किसी के द्वारा सिखाये बिना ही जीव के चली आ रही है, यही महा भयंकर दुःख की कारणरूप भूल है।
पाप करनेवाला जीव भी पुण्य से लाभ मानता है, क्योंकि वह स्वयं अपने को पापी नहीं कहलवाना चाहता अर्थात् स्वयं पाप करते हुए भी उसे पुण्य अच्छा लगता है, इस प्रकार अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव अनादि काल से पुण्य को भला हितकर मान रहा है। अनादि काल से जीव ने पुण्य अर्थात् मन्द कषाय में लाभ माना है।
वह यह मानता ही रहता है कि शरीर तथा शरीर के काम मेरे हैं और शरीर से तथा पुण्य से मुझे लाभ होता है। वह जिसे अपना मानता है, उसे हेय क्यों मानेगा? यह महा भयंकर भूल निगोद से लेकर जगत के सर्व अज्ञानी जीवों के होती है और यही अगृहीत मिथ्यात्व है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.