Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 319
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [303 सम्यग्दर्शन है। भेद के विचार में अटक जाना, सम्यग्दर्शन का स्वरूप नहीं है। जो वस्तु है, वह अपने-आप परिपूर्ण स्वभाव से भरी हुई है। आत्मा का स्वभाव, पर की अपेक्षा से रहित एकरूप है। कर्मों के सम्बन्ध से युक्त हूँ अथवा कर्मों के सम्बन्ध से रहित हूँ; इस प्रकार की अपेक्षाओं से उस स्वभाव का लक्ष्य नहीं होता। यद्यपि आत्मस्वभाव तो अबन्ध ही है, परन्तु 'मैं अबन्ध हूँ', इस प्रकार के विकल्प को भी छोड़कर निर्विकल्प ज्ञात-दृष्टा निरपेक्ष स्वभाव का लक्ष्य करते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। __ हे प्रभु! तेरी प्रभुता की महिमा अन्तरङ्ग में परिपूर्ण है। अनादि काल से उसकी सम्यक् प्रतीति के बिना उसका अनुभव नहीं होता। अनादि काल से परलक्ष्य किया है, किन्तु स्वभाव का लक्ष्य नहीं किया है। शरीरादि में तेरा सुख नहीं है, शुभराग मे तेरा सुख नहीं है और 'शुभराग रहित मेरा स्वरूप है', इस प्रकार के भेदविचार में भी तेरा सुख नहीं है; इसलिए उस भेद के विचार में अटक जाना भी अज्ञानी का कार्य है और उस नयपक्ष के भेद का लक्ष्य छोड़कर, अभेद ज्ञातास्वभाव का लक्ष्य करना, वह सम्यग्दर्शन है और उसी में सुख है। अभेदस्वभाव का लक्ष्य कहो, ज्ञातास्वभाव का अनुभव कहो, सुख कहो, धर्म कहो अथवा सम्यग्दर्शन कहो -वह सब यही है। विकल्प रखकर स्वरूप का अनुभव नहीं हो सकता :__ अखण्डानन्द अभेद आत्मा का लक्ष्य, नय के द्वारा नहीं होता। कोई किसी महल में जाने के लिये चाहे जितनी तेजी से मोटर दौड़ाये, किन्तु वह महल के दरवाजे तक ही जाएगी, मोटर के Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

Loading...

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344