Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 सच्ची नहीं है। जो यह नहीं जानते कि अपने परिणाम स्वतन्त्र हैं, उनके तो दर्शनशुद्धि का व्यवहार भी यथार्थ नहीं है; मिथ्यात्व की मन्दता भी वास्तविक नहीं है। वस्तुस्वरूप ही ऐसा है, वह किसी की अपेक्षा नहीं रखता। त्यागादि के शुभपरिणामों द्वारा वस्तुस्वरूप की साधना नहीं हो सकती।
कालिक स्वभाव स्वतन्त्र है। उसका प्रत्येक अंश स्वतन्त्र है। मेरे त्रिकालस्वभाव में रागादि परिणाम नहीं हैं; इस प्रकार स्वभावदृष्टि करके पर्यायबुद्धि को छोड़ दे, तभी सम्यग्दर्शन होता है
और मोक्षमार्ग भी तभी होता है। द्रव्यलिङ्गी जीव, पर्याय को तो स्वतन्त्र मानते हैं; किन्तु पर्यायबुद्धि को नहीं छोड़ते, त्रिकाली स्वभाव का आश्रय नहीं करते, इसी से उनके मिथ्यात्व रहता है। वे जीव, शास्त्र में लिखा हुआ अधिक मानते हैं, किन्तु स्व में स्थिर नहीं होते; परलक्ष्य से पर्याय की स्वतन्त्रता मानते हैं, किन्तु यथार्थतया स्वभाव में रागादि भी नहीं है - ऐसी श्रद्धा के बिना परमार्थ से अंश की स्वतन्त्रता की मान्यता भी नहीं कही जाती। _ 'कर्म विकार कराते हैं अथवा निमित्ताधीन होकर विकार करना पड़ता है'-इत्यादि प्रकार से जिन्होंने पर्याय को पराधीन माना है, उन जीवों ने तो उपादान-निमित्त को ही एकमेक माना है। निमित्त के कारण अपनी पर्याय न माने, किन्तु ऐसा माने कि वह स्वतन्त्र है; तथापि पर्याय में जो विकार होता है, उसे स्वरूप मानकर अटक जाये तो यह भी मिथ्यात्व है।
जो यह मानते हैं कि परद्रव्यों की क्रिया से अपने परिणाम होते हैं, उनके मन्दकषाय होने पर भी, मिथ्यात्व कर रस यथार्थतया मन्द नहीं पड़ता तथा शास्त्रज्ञान भी सच्चा नहीं होता।
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