Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[261 कहलायेंगे और वहाँ की पुस्तकें धर्म-शास्त्र कहलायेंगी; किन्तु ऐसा नहीं होता। धर्म का स्वरूप अपूर्व है।
तीन प्रकार की मूढ़ताओं में गुरुमूढ़ता विशेष है, उसमें धर्म के नाम पर स्वयं अधर्म करता हुआ भी धर्म मानता है। उदाहरण के रूप में, दुकान में बैठा हुआ आदमी यह नहीं मानता कि मैं अभी सामायिक-धर्म करता हूँ; किन्तु धर्मस्थान में जाकर अपने माने हुए गुरु अथवा बड़े लोगों के कथानुसार अमुक शब्द बोलता है, जिनका अर्थ भी स्वयं नहीं जानता और उसमें वह जीव मान लेता है कि मैंने सामायिक-धर्म किया। यदि शुभभाव हो तो पुण्य हो; किन्तु उस शुभ में धर्म माना, अर्थात् अधर्म को धर्म माना, यही मिथ्यात्व है।
स्वयं विचार-शक्तिवाला होकर भी नये-नये भ्रमों को पुष्ट करता रहता है, यही गृहीत मिथ्यात्व है। यहाँ पर मिथ्यात्व के सम्बन्ध में दो बातें कही गयी हैं।
1. अनादि काल से समागत 'पुण्य से धर्म होता है और मैं शरीर का कार्य कर सकता हूँ' इस प्रकार की जो विपरीत मान्यता है, वह अगृहीत मिथ्यात्व है। ___2. लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता के सेवन से कुदेव-कुगुरु के द्वारा जीव, विपरीत मान्यता को पुष्ट करनेवाले भ्रम ग्रहण करता है, यही गृहीत मिथ्यात्व है। सच्चे-देव-धर्म की तथा अपने आत्मस्वरूप की सच्ची समझ के द्वारा इन दोनों मिथ्यात्वों को दूर किये बिना, जीव कभी भी सम्यक्तव को प्राप्त नहीं हो सकता और सम्यग्दर्शन के
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.