Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[219 की मुनिदशा अथवा पाँचवें गुणस्थान की श्रावकदशा होती ही नहीं
और पञ्च महाव्रत, व्रत, प्रतिमा, त्याग आदि कुछ सच्चा नहीं होता। यह मुनि या श्रावक होने से पूर्व के सम्यग्दर्शन की बात है। वस्तुस्वरूप क्या है, उसे समझे बिना उतावला होकर बाह्य त्याग करने लग जाये तो उससे कहीं धर्म नहीं होता। भरत चक्रवर्ती के छह खण्ड का राज्य था, उनके अरबों वर्ष राजपाट में रहने पर भी ऐसी दशा थी। जिसने आत्मस्वभाव का भान कर लिया, उसे सदैव वह भान रहता है। खाते-पीते समय कभी भी आत्मा का भान न भूले और सदैव ऐसा भान बना रहे- वही निरन्तर करना है। ऐसा भान होने के पश्चात् उसे गोखना नहीं पड़ता। जैसे हजारों अछूतों के मेले में कोई ब्राह्मण जा पहुँचे और मेले के बीच में खड़ा हो, तथापि 'मैं ब्राह्मण हूँ'- इस बात को वही नहीं भूलता; उसी प्रकार धर्मी जीव, अछूतों के मेले की तरह अनेक प्रकार के राजपाट, व्यापार-धन्धे आदि संयोगों में स्थित दिखायी दें और पुण्यपाप होते हों; तथापि वे सोते समय भी चैतन्य का भान नहीं भूलते। आसन बिछाकर बैठे तभी धर्म होता है- ऐसा नहीं है, यह सम्यग्दर्शन धर्म तो निरन्तर बना रहता है।
(27) यह बात अन्तर में ग्रहण करने योग्य है। रुचिपूर्वक शान्तचित होकर परिचय करें तो यह बात पकड में आ सकती है। अपनी मानी हुई सारी पकड़ को छोड़कर सत्समागम से परिचय किये बिना उकताने से यह बात पकड़ में नहीं आ सकती। पहले सत्समागम से श्रवण, ग्रहण और धारणा करके शान्तिपूर्वक अन्तर में विचारना चाहिए। यह तो अकेले अन्तर के विचार का कार्य है, परन्तु सत्समागम से श्रवण-ग्रहण-धारणा ही
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