Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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है।‘आत्मा, अखण्ड शुद्ध है, ' जो ऐसा सुनकर मान ले, परन्तु पर्याय को न समझे, अशुद्ध और शुद्धपर्याय का विवेक न करे, उसे सम्यक्त्व नहीं हो सकता । कदाचित् ज्ञान के विकास से द्रव्यगुण-पर्याय के स्वरूप को ( विकल्प ज्ञान के द्वारा ) जान ले, तथापि इतने मात्र से जीव का यथार्थ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वस्तुस्वरूप में एकमात्र ज्ञानगुण ही नहीं, परन्तु श्रद्धा, सुख इत्यादि अनन्त गुण हैं और जब वे सभी गुण अंशतः स्वभावरूप कार्य करते हैं, तभी जीव का सम्यग्दर्शनरूपी प्रयोजन सिद्ध होता है | ज्ञानगुण ने विकल्प के द्वारा आत्मा को जानने का कार्य किया, परन्तु तब दूसरी ओर श्रद्धागुण मिथ्यात्वरूप कार्य कर रहा है और आनन्दगुण आकुलता संवेदन कर रहा है - यह सब भूल जाये और मात्र ज्ञान से ही सन्तोष मान ले तो ऐसा माननेवाला जीव सम्पूर्ण आत्मद्रव्य को मात्र ज्ञान के एक विकल्प में ही बेच देता है।
मात्र द्रव्य से ही सन्तोष नहीं मान लेना चाहिए; क्योंकि द्रव्यगुण तो सिद्धों के और निगोदिया जीवों के - दोनों के हैं । यदि द्रव्य - गुण से ही महत्ता मानी जाये तो निगोदियापन भी महिमावान क्यों न कहलायेगा ? किन्तु नहीं, नहीं; सच्ची महत्ता तो पर्याय से है। पर्याय की शुद्धता ही भोगने में काम आती है, कहीं द्रव्य-गुण की शुद्धता भोगने में काम नहीं आती, (क्योंकि वह तो अप्रगटरूप है - शक्तिरूप है) इसलिए अपनी वर्तमान पर्याय में सन्तोष न मानकर, पर्याय की शुद्धता को प्रगट करने के लिए पवित्र सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने का अभ्यास करना चाहिए।
‘अहो! अभी पर्याय में बिल्कुल पामरता है, मिथ्यात्व को अनन्त काल की जूठन समझकर इसी क्षण ओक देने की (वमन
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