Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1] पर्यायदृष्टि से बँधा हुआ हूँ – इस प्रकार मन के अवलम्बन से, शास्त्र के लक्ष्य से रागरूपवृत्ति का उत्थान करता है, परन्तु स्वभाव के अवलम्बन से उस रागरूपवृत्ति को तोड़कर अनुभव नहीं करता, तब तक उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता।' कोई जीव जैनदर्शन के अनेक शास्त्रों को पढ़कर महापण्डित हो गया अथवा कोई जीव बहुत समय से बाह्य-त्यागी हुआ और उसी में धर्म मान लिया, किन्तु ज्ञानी कहते हैं कि इससे क्या? इससे धर्म कहाँ है ? पर के अवलम्बन में अटककर धर्म मानना मिथ्यादृष्टि का काम है। रागमात्र का अवलम्बन छोड़कर, स्वभाव के आश्रय से निर्णय और अनुभव करना सम्यग्दृष्टि का धर्म है और उसके बाद ही चारित्रदशा होती है। राग का अवलम्बन तोड़कर आत्मस्वभाव का निर्णय और अनुभव न करे और दान, दया, शील, तप इत्यादि सब कुछ करता रहे तो इससे क्या? यह तो सब राग है, इसमें धर्म नहीं है।
आत्मा ज्ञानस्वरूप है, रागस्वरूप नहीं है। ज्ञानस्वरूप में वृत्ति का उत्थान ही नहीं है। मैं त्रिकाल अबन्ध हूँ' – ऐसा विकल्प भी ज्ञानस्वरूप में नहीं है। यद्यपि निश्चय से आत्मा त्रिकाल अबन्धरूप ही है - यह बात तो इसी प्रकार ही है, परन्तु जो अबन्धस्वभाव है, वह 'मैं अबन्ध हूँ' – ऐसे विकल्प की अपेक्षा नहीं रखता, अर्थात् 'मैं अबन्ध हूँ' – ऐसे विकल्प का अवलम्बन अबन्धस्वभाव की श्रद्धा को नहीं है। विकल्प तो राग है, विकार है; वह आत्मा नहीं है। उस विकल्प के अवलम्बन से आत्मानुभव नहीं होता।
'मैं अबन्धस्वरूप हूँ' -ऐसे विचार का अवलम्बन
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.