Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 आत्मा को पर्याय जितना मानने से सम्यग्दर्शन नहीं होता और जो द्रव्यस्वभाव है, वह त्रिकाल एकरूप सत् अस्तिरूप है। केवलज्ञान प्रगट हो या न हो, इसकी भी जिसे अपेक्षा नहीं है —ऐसे उस स्वभाव को मानने से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। ___एक अवस्था में से दूसरी अवस्था नहीं होती; वह द्रव्य में से ही होती है, अर्थात् एक पर्याय स्वयं दूसरी पर्याय के रूप में परिणमित नहीं होती, किन्तु क्रमबद्ध एक के बाद दूसरी पर्याय के रूप में द्रव्य का ही परिणमन होता है। इसलिए पर्यायदृष्टि को छोड़कर, द्रव्यदृष्टि के करने से ही शुद्धता प्रगट होती है। पर्याय, खण्ड-खण्डरूप है, वह सदा एक समान नहीं रहती और द्रव्य, अखण्डरूप है, वह सदा एक समान रहता है। ऐसे द्रव्य की दृष्टि करने से शुद्ध प्रगट होती है, द्रव्यदृष्टि करने से पर्याय, अन्तरस्वभाव में तल्लीन/ एकाकार होती है।
पर्याय, क्षणिक है, द्रव्य त्रिकाल है, त्रैकालिक के ही लक्ष्य से एकाग्रता हो सकती है और धर्म प्रगट होता है, किन्तु क्षणिक के लक्ष्य से एकाग्रता नहीं होती तथा धर्म प्रगट नहीं होता। पर्याय क्रमवर्ती स्वभाववाली होती है। इसलिए वह एक समय में एक ही होती है और द्रव्य अक्रमवर्ती स्वभाववाला अनन्त पर्यायों का अभिन्न पिण्ड है, जोकि प्रति समय परिपूर्ण है।
छद्मस्थ के वर्तमान पर्याय अपूर्ण है और द्रव्य पूर्ण है; इसलिए परिपूर्णता के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन और वीतरागता
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