Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
244]
[सम्यग्दर्शन : भाग-1 आत्मस्वभाव का अनुभव किए बिना कर्मग्रन्थ पढ़ लिए तो इससे क्या? और आध्यात्मिक ग्रन्थों को पढ़ डाले तो भी इससे क्या? इनमें से किसी भी कार्य से आत्मधर्म का लाभ नहीं होता। आत्मा कर्ता है; अत: वह कैसा कर्म करे (कैसा कार्य करे) कि उसे धर्मलाभ हो ? - यह बात इस कर्ताकर्म-अधिकार में बतायी है। आत्मा, जड़कर्म को बाँधे और कर्म, आत्मा के लिये बाधक हों, यह बात तो यहाँ है ही नहीं, और 'मैं शुद्ध हूँ' – ऐसा जो मन का विकल्प है, वह भी धर्मात्मा का कार्य नहीं है, किन्तु स्वभाव का अनुभव स्वभाव के ही आश्रय से होता है; इसलिए शुद्धस्वभाव का आश्रय ही धर्मात्मा का कार्य है। ___ 'आत्मा शुद्ध है, राग मेरा स्वरूप नहीं है' – ऐसे विचार का अवलम्बन भी सम्यग्दर्शन में नहीं है, तब फिर देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति इत्यादि से सम्यग्दर्शन होने की बात कहाँ रही? और पुण्य करते-करते आत्मा की पहिचान हो जाती है या अच्छे निमित्तों के अवलम्बन से आत्मा को धर्म में सहायता मिलती है – ऐसी स्थूल मिथ्यामान्यता तो सम्यग्दर्शन से बहुत-बहुत दूर है। दया, दान, भक्ति, उपवास, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा, यात्रा और शास्त्रों का ज्ञान - यह सब वास्तव में राग के मार्ग हैं, उनमें से किसी के भी आश्रय से आत्मस्वभाव का निर्णय नहीं होता, क्योंकि आत्मस्वभाव का निर्णय तो अरागी श्रद्धा-ज्ञानरूप है। वीतराग चारित्रदशा प्रगट होने से पूर्व वीतराग श्रद्धा और वीतराग ज्ञान के द्वारा स्वभाव का अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है
और ऐसा अनुभव करनेवाला जीव ही समयसार है । ऐसा अनुभव प्रगट नहीं किया और उपरोक्त दया, दान, भक्ति, व्रत, यात्रा,
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.