Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[39 मोक्ष का मूल भेदविज्ञान है। राग को जानकर, राग से भिन्न रहनेवाला ज्ञान, मोक्ष प्राप्त करता है और राग को जानकर, राग में अटक जानेवाला ज्ञान, बँधता है।
ज्ञानी के प्रज्ञारूपी छैनी का बल है कि यह वृत्तियाँ तो प्रतिक्षण चली ही जा रही हैं और वृत्तियों से रहित मेरा ज्ञान बढ़ता ही जाता है। अज्ञानी को ऐसा लगता है कि - अरे! मेरे ज्ञान में यह वृत्ति हुई है और वृत्ति के साथ मेरा ज्ञान भी चला जा रहा है। अज्ञानी के ज्ञान
और राग के बीच अभेदबुद्धि (एकत्वबुद्धि), है जो कि मिथ्याज्ञान है। ज्ञानी ने प्रज्ञारूपी छैनी के द्वारा राग और ज्ञान को पृथक् करके पहिचाना है, जो कि सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है और ज्ञान ही मोक्ष है। जो सम्यग्ज्ञान साधकदशा के रूप में था, वही सम्यक्ज्ञान बढ़कर साध्यदशारूप हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान ही साधक-साध्य है।
आत्मा को अपने मोक्ष के लिए अपने गुण के साथ सम्बन्ध होता है या परद्रव्यों के साथ? आत्मा का अपने ज्ञान के साथ ही सम्बन्ध है; परद्रव्य के साथ आत्मा के मोक्ष का सम्बन्ध नहीं है। आत्मा पर से तो पृथक् है ही; किन्तु यहाँ अन्तरङ्ग में यह भेदज्ञान कराते हैं कि वह विकार से भी पृथक् है। विकार से आत्मा का भेद कर देना ही विकार के नाश का उपाय है। राग की क्रिया मेरे स्वभाव में नहीं है। इस प्रकार सम्यक्त्व के द्वारा जहाँ स्वभाव सामर्थ्य को स्वीकार किया, वहाँ विकार का ज्ञाता हो गया। जैसे बिजली के गिरने से पर्वत में दरार पड़ जाती है। उसी प्रकार प्रज्ञारूपी छैनी के गिरने से स्वभाव और विकार के बीच दरार पड़ जाता है तथा ज्ञान स्वोन्मुख हो जाती है और जो
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