Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 सकता है कि जिसे धर्म-रुचि है, उसे आत्मरुचि है और वह अन्यत्र जहाँ-जहाँ दूसरे में धर्म देखता है, वहाँ-वहाँ उसे प्रमोद उत्पन्न होता है। जिसे धर्म-रुचि हो गयी, उसे धर्मस्वभावी आत्मा की और धर्मात्माओं की रुचि होती ही है। जिसे अन्तरङ्ग में धर्मी जीवों के प्रति किञ्चित्मात्र भी अरुचि हुई, उसे धर्म की भी अरुचि होगी ही। उसे आत्म-रुचि नहीं हो सकती।
जिसे आत्मा का धर्म रुच गया, उसे जहाँ-जहाँ वह धर्म देखता है, वहाँ-वहाँ प्रमोद और आदरभाव उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। धर्मस्वरूप का भान होने के बाद भी, वह स्वयं वीतराग नहीं होता; इसलिए स्वयं स्वधर्म की पूर्णता की भावना का विकल्प उठता है और विकल्प, परनिमित्त की अपेक्षा रखता है; इसलिए अपने धर्म की प्रभावना का विकल्प उठने, पर जहाँ-जहाँ धर्मी जीवों को देखता है, वहाँ-वहाँ उसे रुचि, प्रमोद और उत्साह उत्पन्न होता है। वास्तव में तो उसे अपने अन्तरङ्ग धर्म की पूर्णता की रुचि है। धर्मनायक देवाधिदेव तीर्थङ्कर और मुनिधर्मात्मा, सद्गुरु, सत्शास्त्र, सम्यग्दृष्टि एवं सम्यग्ज्ञानी, यह सब धर्मात्मा, धर्म के स्थान हैं। उनके प्रति धर्मात्मा को आदर-प्रमोदभाव उमड़े बिना नहीं रहता। जिसे धर्मात्माओं के प्रति अरुचि है, उसे अपने आत्मा पर क्रोध है।
जिसका उपयोग, धर्मी जीवों को हीन बताकर अपनी बड़ाई लेने के लिए होता है - जो धर्मी का विरोध करके स्वयं बड़ा बनना चाहता है, वह निजात्मा के कल्याण का शत्रु है – मिथ्यादृष्टि है। धर्म अर्थात् स्वभाव; और उसे धारण करनेवाला धर्मी अर्थात् आत्मा ! इसलिए जिसे धर्मात्मा के प्रति अरुचि है, उसे धर्म के
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