Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 देव-गुरु-धर्म को तेरी भक्ति की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जिज्ञासु जीवों को साधकदशा में अशुभराग से बचने के लिए सत् के प्रति बहुमान उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा है कि –'यद्यपि ज्ञानी भक्ति नहीं चाहते, फिर भी वैसा किए बिना मुमुक्षु जीवों का कल्याण नहीं हो सकता। सन्तों के हृदय में निवास करनेवाला यह गुप्त रहस्य यहाँ खोलकर रख दिया गया है।' सत् के जिज्ञासु को सत् निमित्तरूप सत् पुरुष की भक्ति का उल्लास आये बिना रह नहीं सकता।
पहले तो उल्लास जाग्रत होता है कि अहो! अभी तक तो असङ्ग चैतन्यज्योति आत्मा की बात ही नहीं सुनी और सच्चे-देव -शास्त्र-गुरु की भक्ति से भी अलग रहा। इतना समय बीत गया। इसी प्रकार जिज्ञासु को पहले की भूल का पश्चाताप होता है और वर्तमान में उल्लास जाग्रत होता है; किन्तु यह देव-गुरु-शास्त्र का राग, आत्मस्वभाव को प्रगट नहीं करता। पहले तो राग उत्पन्न होता है और फिर 'यह राग भी मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार स्वभावदृष्टि के बल से अपूर्व आत्मभान प्रगट होता है।'
सच पूछा जाए तो देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अनादि से सत्य समर्पण ही नहीं हुआ और उनका कहा हुआ सुना तक नहीं। अन्यथा, देव-शास्त्र-गुरु तो यह कहते हैं कि तुझे मेरा आश्रय नहीं है, तू स्वतन्त्र है। यदि देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा की होती तो उसे अपनी स्वतन्त्रता की श्रद्धा अवश्य हो जाती। देव-शास्त्रगुरु के चरण में तन-मन-धन समर्पण किये बिना, जिसमें सम्पूर्ण आत्मा का समर्पण समाविष्ट है, वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहाँ से प्रगट होगा?
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