Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[193 स्वरूप की खबर नहीं होती। पहले यथार्थ श्रद्धा के प्रगट हुए बिना कदापि भव का अन्त नहीं होता। सच्ची श्रद्धा के बिना सम्यकचारित्र का अंश भी प्रगट नहीं होता।
ज्ञानी के विशेष चारित्र न हो तो, तथापि वस्तुस्वरूप की प्रतीति होने से दर्शनाचार में वह निःशङ्क होता है। मेरे स्वभाव में राग का अंश भी नहीं है, मैं ज्ञानस्वभावी ज्ञाता ही हूँ - जिसने ऐसी प्रतीति की है, उसके चारित्रदशा न होने पर भी, दर्शनाचार सुधर गया है। उसे श्रद्धा में कदापि शङ्का नहीं होती। ज्ञानी को ऐसी शङ्का उत्पन्न नहीं होती कि 'राग होने से मेरे सम्यग्दर्शन में कहीं दोष तो नहीं आ जाएगा।' ज्ञानी कि ऐसी शङ्का हो ही नहीं सकती, क्योंकि वह जानता है कि जो राग होता है, वह चारित्र का दोष है किन्तु चारित्र के दोष से श्रद्धागुण में मलिनता नहीं आ जाती । हाँ! जो राग होता है, उसे यदि अपना स्वरूप माने अथवा पर में सुखबुद्धि माने तो उसका श्रद्धा में दोष आता है। यदि सच्ची प्रतीति की भूमिका में अशुभराग हो जाए तो उसका भी निषेध करता है और जानता है कि यह दोष, चारित्र का है; वह मेरी श्रद्धा को हानि पहुँचाने में समर्थ नहीं है – ऐसा दर्शनाचार का अपूर्व सामर्थ्य है।
दर्शनाचार (सम्यग्दर्शन) ही सर्व प्रथम पवित्र धर्म है। अनन्त परद्रव्यों के काम में मैं कुछ निमित्त भी नहीं हो सकता, अर्थात् पर से तो भिन्न ज्ञाता ही हूँ और आसक्ति का जो राग-द्वेष है, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है, वह मेरे श्रद्धास्वरूप को हानि पहुँचाने में समर्थ नहीं है – ऐसा दर्शनाचार की प्रतीति का जो बल है, वह अल्प काल में मोक्ष देनेवाला है। अनन्त भव का नाश करके एक भवावतारी बना देने की शक्ति दर्शनाचार में है। दर्शनाचार की प्रतीति को प्रगट
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