Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 ज्ञानी के चारित्रदोष के कारण राग-द्वेष होता है, तथापि उसे अन्तरङ्ग से निरन्तर यह समाधान बना रहता है कि यह राग-द्वेष, परवस्तु के परिणमन के कारण नहीं, किन्तु मेरे दोष से होते हैं, तथापि वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरी पर्याय में राग-द्वेष होने से पर में कोई परिवर्तन नहीं होता – ऐसी प्रतीति होने से ज्ञानी के रागद्वेष का स्वामित्व नहीं रहता और ज्ञातृत्व का अपूर्व निराकुल सन्तोष हो जाता है। केवलज्ञान होने पर भी, अरहन्त भगवान के प्रदेशत्वगुण की और उर्ध्वगमनस्वभाव की निर्मलता नहीं है। इसीलिए वे संसार में हैं। अघातिया कर्मों की सत्ता के कारण अरहन्त भगवान के संसार हो, यह बात नहीं है, किन्तु अन्यत्व नामक भेद होने के कारण अभी प्रदेशत्व आदि गुण का विकार है, इसीलिए वे संसार में हैं।
जैसे – सम्यग्दर्शन होने पर चारित्र नहीं हुआ तो वहाँ अपने चारित्रगुण की पर्याय में दोष है, श्रद्धा में दोष नहीं। चारित्रसम्बन्धी दोष अपने पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण है, कर्म के कारण वह दोष नहीं है; इसी प्रकार केवलज्ञान के होने पर भी, प्रदेशत्वसत्ता
और योगसत्ता में जो विकार रहता है, उसका कारण यह है कि समस्त गुणों में अन्यत्व नामक भेद है। प्रत्येक पर्याय की सत्ता स्वतन्त्र है। यह गाथा द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतन्त्र सत्ता को जैसा का तैसा बतलाती है, क्योंकि यह ज्ञेय-अधिकार है; इसलिए प्रत्येक पदार्थ और गुण की सत्ता की स्वतन्त्रता की प्रतीति कराता है। यदि प्रत्येक गुणसत्ता और पर्यायसत्ता के अस्तित्व को ज्यों का त्यों जाने तो ज्ञान सच्चा है। निर्विकारीपर्याय अथवा विकारीपर्याय भी स्वतन्त्र पर्यायसत्ता है। उसे ज्यों का त्यों जानना चाहिए। जीव
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