Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
180]
[सम्यग्दर्शन : भाग-1 भेद का विकल्प उठता है, तथापि उससे सम्यग्दर्शन नहीं होता
अनादि काल से आत्मस्वरूप का अनुभव नहीं है, परिचय नहीं है; इसलिए आत्मानुभव करने से पूर्व तत्सम्बन्धी विकल्प उठे बिना नहीं रहते। अनादि काल से आत्मा का अनुभव नहीं है; इसलिए वृत्तियों का उत्थान होता है कि - मैं आत्मा, कर्म के सम्बन्ध से युक्त हूँ अथवा कर्म के सम्बन्ध से रहित हूँ; इस प्रकार दो नयों के दो विकल्प उठते हैं, परन्तु कर्म के सम्बन्ध से युक्त हूँ अथवा कर्म के सम्बन्ध से रहित हूँ, अर्थात् बद्ध हूँ या अबद्ध हूँ' - ऐसे दो प्रकार के भेद का भी एकस्वरूप में कहाँ अवकाश है? स्वरूप तो नयपक्ष की अपेक्षाओं से परे हैं । एक प्रकार के स्वरूप में दो प्रकार की अपेक्षायें नहीं हैं। मैं शुभाशुभभाव से रहित हूँ; इस प्रकार के विचार में लगना भी एक पक्ष है, इससे भी उस पार स्वरूप है। स्वरूप तो पक्षतिक्रान्त है, यही सम्यग्दर्शन का विषय है, अर्थात् उसी के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ___ सम्यग्दर्शन का स्वरूप क्या है ? देह की किसी क्रिया से सम्यग्दर्शन नहीं होता; जड़कर्मों से नहीं होता; अशुभराग अथवा शुभराग के लक्ष्य से भी सम्यग्दर्शन नहीं होता और 'मैं पुण्य-पाप के परिणामों से रहित ज्ञायकस्वरूप हूँ'- ऐसा विचार भी स्वरूप का अनुभव कराने के लिये समर्थ नहीं है। 'मैं ज्ञायक हूँ', इस प्रकार के विचार में जो अटका, सो वह भेद के विचार में अटक गया, किन्तु स्वरूप तो ज्ञाता-दृष्टा है, उसका अनुभव ही सम्यग्दर्शन है; भेद के विचार में अटक जाना, सम्यग्दर्शन का स्वरूप नहीं है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.