Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 भीतर जाना पड़ता है; इसी प्रकार नयपक्ष के विकल्पों वाली मोटर चाहे जितनी दौड़ाये –'मैं ज्ञायक हूँ, अभेद हूँ, शुद्ध हूँ' – ऐसे विकल्प करे तो भी स्वरूप के आँगन तक ही जाया जा सकता है, किन्तु स्वरूपानुभव करते समय तो वे सब विकल्प छोड़ देने ही पड़ते हैं । विकल्प रखकर स्वरूपानुभव नहीं हो सकता। नयपक्ष का ज्ञान उस स्वरूप के आँगन में आने के लिये आवययक है।
_ 'मैं स्वाधीन ज्ञानस्वरूपी आत्मा हूँ, कर्म जड़ हैं, जड़कर्म मेरे स्वरूप को नहीं रोक सकते, मैं विकार करूँ तो कर्मों को निमित्त कहा जा सकता है; किन्तु कर्म मुझे विकार नहीं कराते, क्योंकि दोनों द्रव्य भिन्न हैं; वे कोई एक-दूसरे का कुछ नहीं करते, मैं जड़ का कुछ नहीं करता और जड़ मेरा कुछ नहीं करता, जो राग-द्वेष होता है, उसे कर्म नहीं कराता तथा वह परवस्तु में नहीं होता, किन्तु मेरी अवस्था में होता है । वह राग-द्वेष मेरा स्वभाव नहीं है। ___ निश्चय से मेरा स्वभाव, रागरहित ज्ञानस्वरूप है, इस प्रकार सभी पहलुओं का (नयों का) ज्ञान पहले करना चाहिए, किन्तु जब तक इतना करता है, तब तक भी भेद का लक्ष्य है। भेद के लक्ष्य से अभेद आत्मस्वरूप का अनुभव नहीं हो सकता, तथापि पहले उन भेदों को जानना चाहिए, जब इतना जान ले, तब समझना चाहिए कि वह स्वरूप के आँगन तक आया है। बाद में जब अभेद का लक्ष्य करता है, तब भेद का लक्ष्य छूट जाता है और स्वरूप का अनुभव होता है, अर्थात् अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इस प्रकार यद्यपि स्वरूपोन्मुख होने से पूर्व नयपक्ष के विचार होते तो हैं, परन्तु वे नयपक्ष के कोई भी विचार स्वरूपानुभव में सहायक तक नहीं होते।
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