Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 होने पर अब अपने द्रव्य-पर्याय में देखना रहता है। मेरा त्रिकाल द्रव्य एक समयमात्र की अवस्थारूप नहीं है; अर्थात्, विकार क्षणिक पर्याय के रूप में है परन्तु त्रिकालस्वरूप के रूप में नहीं है; इस प्रकार विकाररहित स्वभाव की सिद्धि भी अनेकान्त से होती है। भगवान के द्वारा कहे गये सत् शास्त्रों की महिमा अनेकान्त से ही है। भगवान भी दूसरे का कुछ नहीं कर सकते :__ भगवान ने अपना कार्य परिपूर्ण किया और दूसरे का कुछ भी नहीं किया, क्योंकि एक तत्त्व अपने रूप से है और पररूप से नहीं है; इसलिए वह किसी अन्य का कुछ नहीं कर सकता है। प्रत्येक द्रव्य, भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र है; कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। इस प्रकार जानना ही भगवान के शास्त्र की पहिचान है, यही श्रुतज्ञान है। यह तो अभी स्वरूप को समझनेवाले की पात्रता कही गयी है। जैनशास्त्र में कथित प्रभावना का सच्चा स्वरूप :
कोई जीव, परद्रव्य की प्रभावना नहीं कर सकता, परन्तु जैनधर्म; अर्थात्, आत्मा का जो वीतरागस्वभाव है, उसकी प्रभावना धर्मी जीव कर सकते हैं। आत्मा को जाने बिना आत्मा के स्वभाव की वृद्धिरूप प्रभावना किस प्रकार करे? प्रभावना करने का जो विकल्प उठता है, वह भी पर के कारण नहीं है, क्योंकि दूसरे के लिये कुछ भी अपने में होता है - यह कहना जैनशासन की मर्यादा में नहीं है। जैनशासन तो वस्तु को स्वतन्त्र, स्वाधीन और परिपूर्ण स्थापित करता है।
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