Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[161 जी ही असाध्य है। भले ही शरीर हिले-डुले और बोले, किन्तु यह जड़ की क्रिया है, उसका मालिक हुआ, किन्तु अन्तर में साध्य जो ज्ञानस्वरूप है, उसकी जिसे खबर नहीं है, वह असाध्य; अर्थात्, चलता मुर्दा है। __ वस्तु का स्वभाव यथार्थरूप से सम्यक्दर्शनपूर्वक के ज्ञान से नहीं समझे तो जीव को स्वरूप का किञ्चित् लाभ नहीं है। सम्यग्दर्शन और ज्ञान से स्वरूप की पहचान और निर्णय करके जो स्थिर हुआ, उसे ही 'शुद्ध आत्मा' ऐसा नाम प्राप्त होता है, वही समयसार है और वही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है। मैं शुद्ध हूँ' - ऐसा विकल्प छूटकर अकेला आत्मानुभव होता है, तभी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होता है; यह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहीं आत्मा से पृथक् नहीं है; वे शुद्ध आत्मारूप ही हैं। आत्मा से पृथक् नहीं हैं :
जिसे सत्य की आवश्यकता हो -ऐसे जिज्ञासु समझदार जीव को यदि कोई असत्य कहे तो वह उस असत्य की हाँ नहीं करता, वह असत्य का स्वीकार नहीं करता। राग से स्वभाव का अनुभव होगा - ऐसी बात उसे नहीं जंचती। जिसे सत्स्वभाव चाहिए हो, वह स्वभाव से विरुद्ध भाव की हाँ नहीं करता, उन्हें अपना नहीं मानता। वस्तु का स्वरूप शुद्ध है, उसका बराबर निर्णय किया है और राग से भिन्न पड़कर ज्ञान स्वसन्मुख होने पर जो अभेद शुद्ध अनुभव हुआ, वही समयसार है और वही धर्म है। ऐसा धर्म किस प्रकार होता है ? धर्म करने के लिए प्रथम क्या करना चाहिए? इस सम्बन्ध में यह कथन चल रहा है।
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