Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[173 उसके अनुसार बाह्य संयोग स्वयं छूटते जाते हैं। परद्रव्य में आत्मा का पुरुषार्थ नहीं चलता; इसलिए परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के नहीं है; किन्तु अपने भाव पर अपना पुरुषार्थ चल सकता है और अपने भाव का ही फल आत्मा को है।
ज्ञानी कहते है कि सर्व प्रथम पुरुषार्थ के द्वारा यथार्थ ज्ञान करके मिथ्यात्व भाव को छोडो, यही मोक्ष का कारण है।
आत्मा का अनुभव हो तब.... जब निज आतम अनुभव आवे...
तब ओर कछु न सुहावे.... जब० रस नीरस हो जात तत्क्षण......
अक्ष-विषय नहीं भावे.... जब० गोष्ठी कथा कुतूहल विघटे, पुद्गल प्रीति नशावे.... राग-द्वेष जुग चपल पक्षयुत मनपक्षी मर जावे.... जब० ज्ञानानन्द सुधारस उमगे, घट अंतर न समावे... 'भागचन्द' ऐसे अनुभव को हाथ जोरि शिर नांवे.... जब०
अन्तर्मुख प्रयत्न द्वारा जीव को जब आत्मानुभव होता है, तब उसे दूसरा कुछ नहीं सुहाता; अनुभव रस के समक्ष अन्य सब रस तत्क्षण निरस हो जाते हैं, इन्द्रिय-विषय रुचिकर नहीं होते; हास्य कथा और कौतूहल शमन हो जाते हैं। पुद्गल की प्रीति नष्ट होती है। राग-द्वेषरूप चपल पंखवाला मन पक्षी मर जाता है, अर्थात् मन का आलम्बन छूट जाता है। इस अनुभवदशा में ज्ञान और आनन्दरूपी सुधारस ऐसा उल्लसित होता है कि अन्तर घट में समाता नहीं है - ऐसे आत्म-अनुभव का और अनुभवी सन्त का बहुमान करते हुए कवि भागचन्दजी उन्हें हाथ जोड़कर सिर नवाते हैं।
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