Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[165 में लाकर; अर्थात्, उन विकल्पों को रोकने के पुरुषार्थ द्वारा श्रुतज्ञान को भी आत्मसन्मुख करने से शुद्धात्मा का अनुभव होता है। इस प्रकार मति और श्रुतज्ञान को आत्मसन्मुख करना ही सम्यग्दर्शन की विधि है। इन्द्रिय और मन के अवलम्बन से मतिज्ञान परलक्ष्य में प्रवर्तता था उसे, और मन के अवलम्बन से श्रुतज्ञान अनेक प्रकार के नयपक्षों के विकल्प में अटकता था उसे; अर्थात्, परावलम्बन से प्रवर्तमान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को मर्यादा में लाकर अन्तर स्वभाव सन्मुख करके एक ज्ञानस्वभाव को पकड़कर; अर्थात्, लक्ष्य में लेकर निर्विकल्प अनुभव होकर तत्काल निजरस से ही प्रगट होनेवाले शुद्धात्मा का अनुभव करना, वह अनुभव ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। इस प्रकार अनुभव में आनेवाला शुद्धात्मा कैसा है ? :
शुद्धस्वभाव आदि-मध्य और अन्तरहित त्रिकाल एकरूप है, उसमें बन्ध-मोक्ष नहीं है, वह अनाकुल स्वरूप है। मैं शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ ?' - ऐसे विकल्प से होनेवाली आकुलता से रहित है। पुण्य-पाप के आश्रय का लक्ष्य छूटने से अकेला आत्मा ही अनुभव में आता है; केवल एक आत्मा में पुण्य-पाप के कोई भाव नहीं हैं। मानों कि सम्पूर्ण विश्व पर तैरता हो; अर्थात्, समस्त विभावों से पृथक् हो गया हो - ऐसा चैतन्यस्वभाव पृथक् अखण्ड प्रतिभासमय अनुभव आता है। आत्मा का स्वभाव पुण्य-पाप के ऊपर तैरता है; अर्थात्, उसमें एकमेक नहीं हो जाता, उसरूप नहीं हो जाता, परन्तु उनसे अलग का अलग रहता है तथा अनन्त है; अर्थात्, जिसके स्वभाव का कभी अन्त नहीं है; पुण्य-पाप तो अन्तवाले हैं, ज्ञानस्वभाव अनन्त है और विज्ञानघन है। अकेला ज्ञान का ही
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