Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
पिण्ड है । अकेले ज्ञानपिण्ड में राग-द्वेष किञ्चित्मात्र भी नहीं हैं । अज्ञानभाव से राग का कर्ता होता था परन्तु स्वभावभाव से राग का कर्ता नहीं है। अखण्ड आत्मस्वभाव का निर्णय करने के बाद समस्त विभावभावों का लक्ष्य छोड़कर, जब यह आत्मा विज्ञानघन; अर्थात्, जिसमें कोई विकल्प प्रवेश नहीं कर सकता - ऐसे ज्ञान का घन पिण्डरूप परमात्मस्वरूप समयसार का अनुभव करता है, तब वह स्वयं सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप है। निश्चय और व्यवहार - सो कहते हैं ? : -
इसमें निश्चय-व्यवहार दोनों आ जाते हैं । अखण्ड विज्ञानघन -स्वरूप ज्ञानस्वभावी आत्मा, वह निश्चय है और परिणति को स्वभाव सन्मुख करना, वह व्यवहार है । मति - श्रुतज्ञान को स्व -सन्मुख झुकाने के पुरुषार्थरूपी जो पर्याय, वह व्यवहार है और अखण्ड आत्मस्वभाव, वह निश्चय है। जब मति - श्रुतज्ञान को स्व-सन्मुख करके आत्मा का अनुभव किया, उसी समय आत्मा सम्यक्रूप से दिखाई देता है और उसकी श्रद्धा हो जाती है - यह सम्यग्दर्शन प्रगट होने के समय की बात की है।
सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है ? :
सम्यग्दर्शन होने पर स्वरस का अपूर्व आनन्द अनुभव में आता है । आत्मा का सहज आनन्द प्रगट होता है, आत्मिक आनन्द का उछाल आता है, अन्तर में आत्मशान्ति का वेदन होता है, आत्मा का सुख अन्तर में है, वह प्रगट अनुभव में आता है, इस अपूर्व सुख का मार्ग सम्यग्दर्शन ही है । 'मैं समयसार भगवान आत्मा हूँ' - ऐसा जो निर्विकल्प शान्तरस अनुभव में आता है,
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.