Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[157 की पूर्णता ही है। जो पूर्ण स्वभाव की बात करते हैं, वे देव-शास्त्रगुरु तो पवित्र ही हैं, उनके अवलम्बन से जिनने स्वीकार किया है, वे भी पूर्ण पवित्र हुए बिना कदापि नहीं रह सकते। पूर्ण को स्वीकार करके आया है तो पूर्ण अवश्य होगा; इस प्रकार उपादाननिमित्त की सन्धि साथ ही साथ है। सम्यग्दर्शन होने से पूर्व :
यहाँ आत्मानन्द को प्रगट करने की पात्रता का स्वरूप कहा जा रहा है। भाई ! तुझे धर्म करना है न? तो तू अपने को पहिचान ! सर्व प्रथम, सच्चा निर्णय करने की बात है। अरे! तू है कौन? क्या क्षणिक पुण्य-पाप का करनेवाला तू है ? - नहीं, नहीं; तू तो ज्ञान का कर्ता, ज्ञानस्वभावी आत्मा है। तू पर का ग्रहण करनेवाला अथवा छोड़नेवाला नहीं है; तू तो मात्र ज्ञाता ही है - ऐसा निर्णय ही धर्म के प्रथम प्रारम्भ (सम्यग्दर्शन) का उपाय है। प्रारम्भ में; अर्थात्, सम्यग्दर्शन होने से पूर्व ऐसा निर्णय न करे तो वह पात्रता में ही नहीं है। मेरा सहजस्वभाव जानना है; इस प्रकार श्रुत के अवलम्बन से जो निर्णय करता है, वह पात्र जीव है। जिसे पात्रता प्रगट हो गयी, उसे अन्तरङ्ग अनुभव अवश्य होगा। सम्यग्दर्शन होने से पूर्व जिज्ञासु जीव, धर्म सन्मुख हुआ जीव, सत्समागम को प्राप्त हुआ, जीव श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करता है। ___ मैं ज्ञानस्वभावी जाननेवाला हूँ। कहीं भी राग-द्वेष करके ज्ञेय में अटक जाना मेरा स्वभाव नहीं है। चाहे जो हो, मैं तो मात्र उसका ज्ञाता हूँ, मेरा ज्ञातास्वभाव, पर का कुछ करनेवाला नहीं है। जैसे, मैं ज्ञानस्वभावी हूँ, वैसे ही जगत् के सब आत्मा ज्ञानस्वभावी हैं।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.