Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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कल्याण की मूर्ति
हे भव्य जीवों ! यदि तुम आत्मकल्याण करना चाहते हो तो स्वतः शुद्ध और सर्वप्रकार से परिपूर्ण आत्मस्वभाव की रुचि और विश्वास करो तथा उसी का लक्ष्य और आश्रय ग्रहण करो; इसके अतिरक्ति अन्य समस्त रुचि, लक्ष्य और आश्रय का त्याग करो। स्वाधीन स्वभाव में ही सुख है; परद्रव्य तुम्हें सुख या दुःख देने के लिये समर्थ नहीं है। तुम अपने स्वाधीन स्वभाव का आश्रय छोड़कर अपने ही दोषों से पराश्रय के द्वारा अनादि काल से अपना अपार अकल्याण कर रहो हो ! इसलिए अब सर्व परद्रव्यों का लक्ष्य और आश्रय छोड़कर, स्वद्रव्य का ज्ञान, श्रद्धान तथा स्थिरता करो।
स्वद्रव्य के दो पहलू हैं – एक त्रिकालशुद्ध स्वतः परिपूर्ण निरपेक्ष स्वभाव और दूसरा क्षणिक, वर्तमान में होनेवाली विकारी पर्याय अवस्था। पर्याय स्वयं अस्थिर है; इसलिए उसके लक्ष्य से पूर्णता की प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता, किन्तु जो त्रिकालस्वभाव है, वह सदा शुद्ध है, परिपूर्ण है और वर्तमान में भी वह प्रकाशमान है; इसलिए उसके आश्रय तथा लक्ष्य से पूर्णता की प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट होगा। यह सम्यग्दर्शन स्वयं कल्याणरूप है और यही सर्वकल्याण का मूल है। ज्ञानीजन सम्यग्दर्शन को ‘कल्याणमूर्ति' कहते हैं । इसलिए सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करने का अभ्यास करो ।
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