Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[79 अर्थात् उसकी पर्याय शुद्ध होने लगी है और उसका दर्शनमोह नष्ट हो गया है।
सोने में सौ टंच शुद्धदशा होने की शक्ति है, जब अग्नि के द्वारा ताव देकर उसकी ललाई दूर की जाती है, तब वह शुद्ध होता है
और इस प्रकार ताव दे-देकर अन्तिम आंच से वह सम्पूर्ण शुद्ध किया जाता है और यही सोने का मूलस्वरूप है, वह सोना अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की पूर्णता को प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार अरहन्त का आत्मा पहले अज्ञानदशा में था; फिर आत्मज्ञान और स्थिरता के द्वारा क्रमशः शुद्धता को बढ़ाकर पूर्णदशा प्रगट की है। अब वे द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों से पूर्ण शुद्ध हैं और अनन्त काल इसी प्रकार रहेंगे। उनके अज्ञान का, राग-द्वेष का और भव का अभाव है। इसी प्रकार अरहन्त के आत्मा को, उनके गुणों को और उनकी अनादि-अनन्त पर्यायों को जो जानता है, वह अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है और उसका मोह अवश्य क्षय को प्राप्त होता है। अरहन्त का आत्मा परिस्पृष्ट है – सब तरह से शुद्ध है, उन्हें जानकर ऐसा लगता है कि अहो! यह तो मेरे शुद्धस्वभाव का ही प्रतिबिम्ब है, मेरा स्वरूप ऐसा ही है। इस प्रकार यथार्थतया प्रतीति होने पर, शुद्धसम्यक्त्व अवश्य ही प्रगट होता है।
अरहन्त का आत्मा ही पूर्ण शुद्ध है। गणधरदेव, मुनिराज इत्यादि के आत्माओं की पूर्ण शुद्धदशा नहीं है; इसलिए उन्हें जानने से, आत्मा के पूर्ण शुद्धस्वरूप का ध्यान नहीं आता। अरहन्त भगवान के आत्मा को जानने पर, अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप का ज्ञान अनुमान प्रमाण के द्वारा होता है और इसीलिए शुद्धस्वरूप की जो विपरीत मान्यता है, वह क्षय को प्राप्त होती है।
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