Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[81 नहीं आयेगा और वह कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा। यदि सौ टंची सोने के साथ मिलाया जाए तो सौं टंच शुद्ध करने का प्रयत्न करें, किन्तु यदि 75 टंची सोने को ही शुद्ध सोना मान ले तो वह कभी शुद्ध सोना प्राप्त नहीं कर सकेगा।
इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव तो शुद्ध ही है, किन्तु वर्तमान अवस्था में अशुद्धता है। अरहन्त और इस आत्मा के बीच वर्तमान अवस्था में अन्तर है। वर्तमान अवस्था में जो अशुद्धता है, उसे दूर करना है; इसलिए अरहन्त भगवान के पूर्ण शुद्ध द्रव्य- गुण-पर्याय के साथ मिलान करना चाहिए कि 'अहो! यह आत्मा तो केवलज्ञानस्वरूप है, पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य है और किञ्चित्मात्र भी विकारवान् नहीं है। मेरा स्वरूप भी ऐसा ही है, मैं भी अरहन्त जैसे ही स्वभाववन्त हूँ' – ऐसी प्रतीति जिसने की, उसे निमित्तों की ओर नहीं देखना होता, क्योंकि अपनी पूर्णदशा अपने स्वभाव के पुरुषार्थ में से आती है, निमित्त में से नहीं आती तथा पुण्य-पाप की ओर अथवा अपूर्णदशा की ओर भी नहीं देखना पड़ता, क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप नहीं है। बस! अब अपने द्रव्य-गुण की ओर ही पर्याय की एकाग्रतारूप क्रिया करनी होती है। एकाग्रता करतेकरते पर्याय शुद्ध हो जाती है। __ऐसी एकाग्रता कौन करता है ? जिसने पहले अरहन्त के स्वरूप के साथ मिलान करके अपने पूर्ण स्वरूप को ख्याल में लिया हो, वह अशुद्धता को दूर करने के लिए शुद्धस्वभाव की एकाग्रता का प्रयत्न करता है, किन्तु जो जीव, पूर्ण शुद्धस्वरूप को नहीं जानता और पुण्य-पाप को ही अपना स्वरूप मान रहा है, वह जीव, अशुद्धता को दूर करने का प्रयत्न नहीं कर सकता; इसलिए
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