Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
यह पञ्चम काल के मुनि का कथन है, पञ्चम काल में मुनि हो सकते हैं । जो जीव अपने ज्ञान के द्वारा अरहन्त के द्रव्य-गुणपर्याय को जानता है, उसका दर्शनमोह नष्ट हो जाता है। जो जीव, अरहन्त के स्वरूप को भी विपरीतरूप से मानता हो और अरहन्त का यथार्थ निर्णय किए बिना उनकी पूजा-भक्ति करता हो, उसके मिथ्यात्व का नाश नहीं हो सकता। जिसने अरहन्त के स्वरूप को विपरीत माना, उसने अपने आत्मस्वरूप को भी विपरीत ही माना है और इसीलिए वह मिथ्यादृष्टि है। यहाँ मिथ्यात्व के नाश करने का उपाय बताते हैं। जिनके मिथ्यात्व का नाश हो गया है, उन्हें समझाने के लिए यह बात नहीं है; किन्तु जो मिथ्यात्व का नाश करने के लिए तैयार हुए हैं, उन जीवों के लिए यह कहा जा रहा है। वर्तमान में भी अपने पुरुषार्थ के द्वारा जीव के मिथ्यात्व का नाश हो सकता है; इसलिए यह बात कही है; अतः समझ में नहीं आता, इस धारणा को छोड़कर समझने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
यद्यपि अभी क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, किन्तु यह बात यहाँ नहीं की गयी है। आचार्यदेव कहते हैं कि जिसने अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर, आत्मस्वरूप का निर्णय किया है, वह जीव, क्षायिक सम्यक्त्व की श्रेणी में ही बैठा है; इसलिए हम अभी से उसके दर्शनमोह का क्षय कहते हैं। भले ही अभी साक्षात् तीर्थङ्कर नहीं हैं तो भी ऐसे बलवन्तर निर्णय के भाव से कदम उठाया है कि साक्षात् अरहन्त के पास जाकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करके, क्षायिक श्रेणी के बल से मोह का सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान-अरहन्तदशा को प्रगट कर लेंगे। यहाँ पुरुषार्थ की ही बात है, वापिस होने की बात है ही नहीं।
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